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इष्टलिंग

लिंगायत धर्म लांछन इष्टलिंग

अष्टावरण में अत्यन्त वैशिष्ट पुर्ण लांछन इष्टलिंग है । निराकार परमात्मा को मानब या प्राणियों के आकार में कल्पित न करके विश्व के अत्कार में रचाकर इष्टलिंग रूप प्रदान करनेवाले महागुरु बसवण्णा हैं । जगत के अन्य किसी भी धर्म में न रहनेवाले तथा भगवान् को, विश्वाकार में तात्विक रूप से, पूजा करने की विशेषता इसमें देखी जा सकती है । निराकार को साकार रूप में ग्रहण करने की परिपाटी आदृयात्मिक तथा व्यावहारिक दोनों जगत में हैं । निराकार समय को जानने के लिए साकार घडी जैसे साधन बनी हुई है वैसे ही निराकार परमात्मा को जानने के लिए इष्टलिंग साकार प्रतीक बना है । यह किसी भी व्यक्ति की मूर्ति नहीं है । प्राणी की मूर्ति नहीं है, मंदिर में रहनेवाले लिंग की तरह पौराणिक शिव का संकेत भी नहीं है । जगत् भर में व्याप्त परमात्मा शरीर का ब्रहंमाड गोलाकार में रहने से उसी आकार में रूपित यह चिह्न हें । इसकी सामाजिक, यौगिक तथा आथ्यात्मिक अर्ध व्याप्ति है । यह उच्व-नीचवाले सूतक को मिटानेवाला साधन है । ब्राह्मण यदि लिंगधारी हो तो अपने को 3ब्ध मानने की, अन्तयज़ लिंगधारी हो तो अपने को नीच मानने की, निम्म भावना को छोड देना होगा । तब उन दोनों में समानता स्थापित होती है ।

इष्टलिंग को काले कांतियुक्त ’कंथे’ का कवच होने के कारण वह दृष्टियोग या त्राटक योग में सहायक साधन बन जाता है । निवास का कालापन तथा कंथे का कालापन दोनों परस्पर आकर्षित हो जाते हैं तो चित्त-एकाग्रता का अनुभव होता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो यह भवसागर को पार करानेवाली नौका है । गाय के थन में जो क्षीर है, उसमें घृत का होना सत्य है । यदि गाय गिरकर चोट खा ले तब वैघ कहता है "गरम धृत से मालिश कीजिए", तब यह कहकर जप करने से कि "थन में क्षीर है, क्षीर में घृत है" गाय का दर्द दूर नहीं होगा । अन्दर के क्षीर को बाहर निकालकर उसको संस्कार देना होगा, तभी प्राप्त घी को मलने से ही दर्द दूर हो सकेगा । इसी प्रकार मानव के भीतर रहनेवाला आत्म चैतन्य भव को उससे दूर नहीं कर सकता । इसको जाननेवाला श्री गुरु अंन्तरंग के आत्म चैतन्य को लघु रूप में बाहर निकालकर इष्टर्लिग के रूप में रुपित कर, ब्रह्मान्डगत महा चैतन्य का गोलाकार के कंथा में रूपित करके दोनों को अभिन्न आश्रीत बनाकर शिष्य को धारण कराता है । यह करस्थल की ज्योति ज्ञान का संकेत फिर अंतरंग में प्रवेश करके "काय को कैलास" बनाकर व्यक्ति को पुनीत कर देता है । इस संबंध में श्री षणमुख स्वामी बतलाते हैं - "इष्टलिंग अपने से भिन्न वस्तु की मूर्ति पूजा नहीं है। जिवात्मा और परमात्मा को एक करके पूजा करनेवाली अहंग्रहोपासना है" ।

मेरे करस्थलं के बीच में परमं निरंजन का
चिन्ह दिकाया, उस चिन्ह के बीच में
ज्ञान की कला दिखायी।
उस कला के बीच में महाज्ञान का प्रकाश दिखाय
उस प्रकाश के बीच में मुझे दिखाया
मुझ में अपने को दिखाय, अपने में
मुझे मिला दिया
ऐसे महागुरु को प्रणाम करता हुँ अखण्डेश्वर ।

कुछ लोग इष्टलिंग पूजा को ही स्थावर लिंग पूजा कहते है । पर शरण लोग इसे स्वीकार नहीं करते ।

यह देखा कि परब्रह्म ही
शरण के शिर- प्रसाद से कर- प्रसाद में,
गुरु कृपा से लिंगमूर्ति बनकर
पधारा हुआ है ।
इसी कारण शरण और लिंग में भेदाभेद संबंध है
इस तथ्य को न जानकर, युक्तिहीनं मानव
लिंग को केलास के शिव के प्रतीक होने से
पूज्य मानते है ।
शरण के मनुज होने से उन्हें पूजक मानते हैं ।
इस प्रकार केवल भेद संबंध की कल्पना
करनेवाली भवभारी शिवादैत से बहुत दूर है ।
अर्ध ज्ञान के यह नर- प्राणी शारणों के सम्मरस्य से
बिलकुल अनिभज्ञ है कूडल चन्न संगमदेवा

इस प्रकार अत्यून्नत तत्ववाले इष्टलिंग को, प्रत्येक अनुयायि को धारण करना ही होगा । क्यों कि देव को नैवेध चढाये बिना उसे कुछ भी नहीँ खाना है । जगत् भर तो दैविवर है उसे देव ने, उदारता से दान रूप में हमें जब प्रदान किया है तो उसके प्रति कृतज्ञाता प्रकट किये बिना ही उस्का भोग करना कृतघ्न कार्य है। इसलिए प्रत्येक बस्तु को स्वंय भोग करने से पह्ले सांकेतिक रूप से देव को अर्पित करके फिर स्विकार करना है। यह अर्पित करने का कार्य ही पुजा है। इसके अन्तर्गत नित्य लिंगार्चन करके दिन के प्रथम प्रसाद के रूप में ईष्ट्लिंग तीर्थ और ईष्ट्लिंग प्रसाद को स्वीकार करके जीवन को दिव्य बना लेना है।

करस्थल के लिंग लुप्त से आया सुख को
समर्पित करोगे किसको?
भक्ति पथ को उचित नहीं लुप्त करना
शरण पथ को उचित नहीं लुप्त करना
अन्न निगल्ना दूषित है कूडलसंगमदेव को लुप्त करके।

इस बात को समझ्कर नित्य लिंगार्चना करनेवाला ही लिंगायत है। जब सब को लिंगार्चना करनि है तो हर एक के अपने-अपने इष्टलिंग को धारण कर लेना आवश्य्क है ना? जब धर्माचरण शिथिल हो जाते हैं तो लोग लिंग धारण का महत्व न जानकर लिंग धारण करना छोड देते हैं। ऎसी कुछ परिस्थितियों में पति-पत्नि-बच्चे परस्पर बदलकर लिंग की पूजा करते हैं । गुरु ने जिस बस्तु में बित्-कला भरकर प्रदान की हो ऐसे लिंग को अपने शरीर से अलग करके अन्यों के लिंगों की पूजा करना उचित नहीं है । इस संबंध में चन्नबसवण्णा की टीका इस प्रकध्दर हैं

पत्नी के हाथ में जो दिया वह प्राणलिंग नहीं हैं,
पुत्र के हाथ में जो दिया सो प्राणलिंग नहीं है।
सुस्ती से पिटारी में जो रखा गया है वह प्राणलिंग नहीं है
लिंग स्पर्श से तनु का वज्र-लेप सा हो जाना है
मन में करस्थत्न में दिया प्राणलिंग लुप्त हो तो
वह व्रथ भ्रष्ट है, कूडलचन्न संगमदेवा।

गुरु के दिये गये इष्टलिंग को अपने से अलग कर दें तो उसकी चित्कला का पतन हो जाता है । गुरु की करुणा इष्टलिंग में बहती हुई सदा शिष्य की रक्षा करती रहती है । इसी कारण से प्रत्येक को लिंग धारण करके उसकी पूज करनी चाहिए

एक बार भूमिं में बीज बोकर, उसे उखाड़कर
फिर बोते जाने से
वह बीज अंकुरित होकर कलायुक्त होकर
केसे फसल दे सकेगा ? हे मूर्ख मानव
मुरु-प्रदत्त लिंग को त्याग कर
पुन:पुन: उसे धारण करे तो वह इष्टलिंग
अनिष्ट को हटाकर इष्टार्थ को केसे दे सकेगा?
यही कारण है कि कूडल वेन्न संगय्या में
मुक्ति पाना है तो अंग से बिना हटाये
लिंग को लगातार धारण करना है।

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