Previous हिन्दू धर्म यानी क्या? लिंगायत धर्म के लक्षण Next

हिंदू और लिंगायत भिन्नताओं का विवरण

✍ पूज्य श्री महाजगद्गुरु डा॥ माते महादेवि


हिंदू और लिंगायत भिन्नताओं एक-एक के बारे में विस्तारपूर्वक समझ लेंगे

1. हिन्दु धर्म का संस्थापक गुरु नहीं है-

जैसे बौद्ध धर्म को बुद्ध, जैन धर्म को (आखरी तीर्थंकर) महावीर, सिक्ख धर्म को गुरू नानक, इसाई धर्म को इसा मसीह और इस्लाम धर्म को (आखरी महापुरूष) मोहम्मद पैगम्बर संस्थापक गुरु हैं यह सारा जग जानता है, वैसे ही हिन्दू धर्म का कोई संस्थापक गुरू नहीं है। लिंगायत र्म के संस्थापक गुरू विश्वगुरू बसवेश्वरजी 12 वी सदी में हो गये (1134-1196)। गुरू बसवेश्वरजी के समकालीन संतों ने और उनके बाद शरण परंपरा के सभी संतों ने इसे माना है। गुरू बसवेश्वर जी के समकालीन संत अल्लम प्रभुदेवजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:-

आदि में बना तू ही गुरू इस कारण, तुझ से जन्मा लिंग
आदि में बना तू ही लिंग इस कारण, तुझ से जन्मा जंगम,
आदि में बना तू ही जंगम इस कारण, तुझ से जन्मा प्रसाद ।
आदि में बना तू ही प्रसादी इस कारण, तुझ से जन्मा चरणामृत
इससे गुरू लिंग जंगम प्रसाद चरणामृत स्वरूप
बना तू ही इस कारण, बन जंगम प्राणी हुए सदाचारी ।
अतः हुआ तू ही सर्वाचार संपन्न
पूर्वाचारी तू ही है इस कारण -अल्लम प्रभुदेवजी

2. नास्तिक, निरीश्वरवादी और सेश्वरवादी:-

हिन्दू धर्म में सांख्य (और उसके आचार विभाग योग) वाले, वैशेषिक और पूर्व मीमांसक निरीश्वरवादी याने एक ही सृष्टिकर्ता को न माननेवाले, हैं । उसी तरह चार्वाक भी नास्तिक हैं। लेकिन लिंगायत धर्म सेश्वरवादी धर्म (Theistic Religion) है। सृष्टिकर्ता कूडलसंगम देव इस धर्म का प्राण है, सार है। लिगांग सामरस्य ही इसका ध्येय है। लिंग याने ब्रह्माण्डगत चैतन्य परमात्मा, अंग याने पिंडाण्डगत चैतन्य जीवात्मा, इन दोनों का सम्मिलन ही लिगांग सामरस्य है। देव है यह परम सत्य हैं; एक ही देव है यह लिंगायत धर्म का स्पष्ट तत्व है। गुरु बसवेश्वरजी इसका प्रतिपादन अपने वचनों में इस प्रकार करते हैं-

अमूल्य अप्रमेय अगोचर है लिंग,
आदि-मध्य-अवसान से स्वतंत्र है लिंग:
नित्य निर्मल है लिंग;
अयोनिज है हमारे कूडलसंगम देव । - ब.व.

दो या तीन देवताओं के होने की बात
घमंड से न करो, देव एक ही है
दो कहना झूठ है
कूडलसंगमदेव के बिना कोई अन्य देव नहीं कहा वेद ने। /61

देव एक नाम अनेक
परम पतिव्रता का पति एक
अन्य दैव को जो टेके माथा
उसके नाक-कान काटेगा
अनेक देवों की जूठन खानेवालों को
क्या कहुँ हे! कूडलसंगमदेव। /230

हे माता-पिता विहीन बेटे
तुम स्वयं जन्म लेकर हुए स्वयं बढ़े।
तेरा परिणाम ही हुम्हें प्राणतृप्ति है न
भेद करनेवालों के लिए अभेध होकर
तुम स्वयं प्रकाशमान हो।
हुम्हारा चारित्र, हुम्हारे लिए सहज है, गुहेश्वर। /536

मेघों की ओट की बिजली जैसे
निर्वान की ओट की मरीचिका जैसे
शब्द की ओट के नी:शब्द जैसे
आँखो की ओट की रोशनी जैसे
गुहेश्वर, है आपका स्वरूप। -596

तेरे ज्ञान का नरक ही है मोक्ष देखो,
बिना तेरे ज्ञान की मुक्ति ही है नरक देखो,
बिना तेरी कृपा का सुख ही दुःख देखो,
तेरी कृपा का दुःख ही परम सुख देखो,
चन्नमल्लिकार्जुना, तूने बँधाया बंधन ही निर्बंध मान रहूँ मैं !

है भेद क्या जम हुये घी और पिघले घी में?
है भेद क्या दीप और दीप्ति में?
है क्या भिन्नता अंग और आत्मा में ?
बनाकर मंत्रपिंड अंग को दिखाया श्री गुरू ने तो
न रही भिन्नता सावयव निरवयव में
चन्नमल्लिकार्जुना, में समाकर बौरा गयी जो
उस क्यों छेडते हो भ, या?

3. हिन्दू धर्म का परम आधार वेदागम ही है

हिन्दू धर्म के लिए वेदागम, स्मृति-श्रुति, ब्रह्म सूत्र - भगवद्गीता ही परम आधार या प्रमाण ग्रंथ हैं। शास्त्रों के इस दास्यत्व को नकारकर धर्मगुरु बसवेश्वरजी ने वेदागम, श्रुति-स्मृति को ही कसौटी पर कसा । इन सबसे अनुभव और अनुभाव प्रमाण ही श्रेष्ठ है ऐसी घोषणा उन्होंने की। पर्याय रूप में उन्होंने वचन शास्त्र संहिता दी । वचन शास्त्र ही आज लिंगायत धर्म का आधार है। क्योंकि गुरू बसवेश्वरजी वचन शास्त्र के बारे में अपने वचनों में यों कहते हैं-

आद्य शरणों के वचन
दूध की नदिया में गूड के कीचढ
और शक्कर की रेत, मिसरी की हैं फेनिल लहरों की तरह है।
ऐसे वचन को छोड़कर, हे! कूडलसंगमदेव
मेरी मति ऐसी हूई
जैसे कूँवा खोदकर पिया हो खारा पानी। /404

भागो मत, मत भागो रे वेदों के पीछे,
फिरको मत, मत फिरको शास्त्रों के पीछे,
न हो क्लांत, न हो क्लांत, पुराणों के पीछे,
पकड़कर हाथ सौराष्ट्र सोमेश्वर का
न होना भ्रमित शब्द जाल में फसकर

वेद को म्यान में रखूँगा
शास्त्र को बोड़ी पहनाऊँगा,
तर्क की पीठ का चमड़ा निकालूँगा
आगम का नाक काटकर रखदूँगा, देखोजी!
हे! महादानी कूडलसंगमदेव।
मैं मादार (मोचि) चन्नय्य के घक का पुत्र हूँ। /359

वेद थरथरा उठे, शास्त्र मार्ग से हट गये,
तर्क मौन हो गया, आगम सरक गये,
ये सब मोची (मादार) चन्नय्य के घर
कूडलसंगय्या का प्रसाद सेवन के कारण हूआ। /360

वेद पढने से क्या हो?
शास्त्र सुनने से क्या हो?
जप करने से क्या हो?
तप करने से क्या हो?
कूछ भी करने से क्या हो?
जब तक मेरा मन
कूडलसंगय्या को न छूयेगा? /361

शास्त्र को श्रेष्ठ कहूँ? मगर वह कर्म की उपासना करता है,
वेद को श्रेष्ठ कहूँ? वह प्राणि वध का समर्थन करता है,
श्रीति को श्रेष्ठ कहूँ? वह सामने रखकर ढूँढता है,
उनमें कहीं भी आप नहीं है, इसलिए,
त्रिविध दासोह को छोड अन्यत्र
कहीं दीखाई नहीं देते
कूडलसंगमदेव। /364


दुनिया के सभी धर्मों का अपना-अपना एक धर्मग्रंथ होता है। जैसे इसाईयों के लिए बाइबिल, मुस्लिमों के लिए कुरान, सिक्खों का ग्रंथ साहिब, बौद्धों का त्रिपिटक, पारसियों के लिए जेन्ड अवस्था होता है उसी तरह वैदिकों के लिए वेद हैं। इन सभी धर्मों के अनुयायियों को उनके आचरण के बारे में अगर 'आप ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा प्रश्न पूछा जाए तो वे जवाब देते हैं कि, हमारा धर्मग्रंथ हमें ऐसा करने को कहता है। उसी तरह हिन्दू अपने आचरणों के लिए वेद, आगम, गीता और पुराणों का वास्ता देते हैं। वैसे ही लिंगायतों के लिए मार्गदर्शक के रूप में है वचन साहित्य | यह वचन साहित्य ही लिंगायतों के आचार-विचार-संस्कारों को नियंत्रण में रखने वाला शब्दकोश है। बारहवीं सदी के संत श्री शंकर देवजी यों कहते हैं:-

'गुरू बसव चले सो मार्ग, बोले सो वेद'
उसी तरह उनके समकालीन संत श्री सिद्ध रामेश्वरजी कहते हैं:

हमारे एक वचन-पारायण के आगे
व्यास का एक पुराण भी बराबर नहीं
हमारे एक सों आठ वचनों के आध्ययन के सामने
शतरुद्रीय याग बराबर नहीं
हमारे वचनों के हजार पारायण के आगे
गायत्रि का लाख जप समा नहिं सकता।
के कपिलसिद्धमल्लिकार्जुन। / 969

चार्वाक, जैन, बौद्ध और सिक्ख इन धर्मां ने वेदों के प्रमाण को नाकारा। इसीलिए ये वैदिक नहीं है ऐसा कहा जाता है !

एक बार गुजरात के स्वामी नारायण पंथवालों ने 'हम अहिन्दू पंथ के अल्पसंख्यांक हैं' कहकर मान्यता प्राप्त करने के लिए सन् 1986 में सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाये। लेकिन उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश माननीय श्री पी. बी. गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता में जो दिया गया उसका सारांश इस प्रकार है: "वेदों को भक्ति और श्रद्धा से मानना, बहुदेवतोपासना में विश्वास रखना, मोक्ष साधन के कई मार्ग हैं इन सब का स्वीकार करना ही हिन्दु धर्म के लक्षण हैं ऐसा तिलकजी का मत था । इसके आधार पर ये फैसला सुनाया गया कि स्वामी नारायण पंथवाले वैदिक आचरण करते हैं इसलिए वे हिन्दू हैं। इसी तरह कलकत्ता के रामकृष्ण आश्रमवाले भी प्रयत्न करके हार गये। ये दोनों पंथवाले हिन्दू देवताओं की पूजा करते हैं, वेदागमों को मानते हैं, होम-हवन-यज्ञ आदि में आसक्त हैं तो वे अहिनू कैसे हो सकते हैं?

लिंगायत धर्म वेदों को प्रमाण नहीं मानता, होम-हवन आदि को नकारता है, एकदेव - इष्टलिंग उपासक धर्म है। इसलिए स्पष्ट रूप से यह अहिन्दू धर्म कहा जायेगा ।

4. चतुर्वर्णों पर विश्वास करता है:-

हिन्दू समाज शास्त्र चतुर्वर्ण और चतुराश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार समाज में वर्णाधारित विभाग चार हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । इन चार वर्णों के बाहर रहने वाला पंचम वर्णिय अछूत कहलाता है।

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति सिर से, क्षत्रिय की उत्पत्ति भुजाओं से, वैश्य की उत्पत्ति जंघाओं से, शूद्र की उत्पत्ति चरणों से हुई। वेदों का अध्ययन और उसके आधार पर धार्मिक पुरोहिताई करने का अधिकार प्राप्त करनेवाला ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ; देश की रक्षा के लिए अपनी भुजाओं के बल पर वीरता से लडनेवाला क्षत्रिय ब्राह्मण से नीचले स्तर का, व्यापारी वृत्ति करने वाला वैश्य उससे भी नीचले स्तर का, दास्य वृत्ति करने वाला शारीरिक श्रम पर आधारित कर्मों को करने वाला शूद्र सब से कनिष्ठ स्तर का माना गया। इसे वेदाध्ययन करने का अधिकार नहीं था और वह उपनयन-यज्ञोपवीत भी धारण नहीं कर सकता । चतुर्वर्ण कक्षा से बाहर रहने वाले दलित सभी तरह के धार्मिक और सामाजिक हकों से पूर्ण रूप से वंचित हैं । क्षत्रिय वर्ण के विश्वामित्र ने ब्रम्हज्ञानी का पद प्राप्त करने के लिए हर तरह से प्रयत्न किए लेकिन उन प्रयत्नों को यश न मिले ऐसी हरकतें की गई, यह ध्यान में रखा जाए। परस्पर विरोधाभासों से भरे हिन्दू समाज में क्षत्रिय वर्ण के राम और कृष्ण ने ही दैवत्व प्राप्त किया ये उतनी ही विस्मयकारी बात है ।

आश्रम चार हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास । ब्राह्मण को ये चारों आश्रम लभ्य हैं। क्षत्रिय को पहले तीन, वैश्य को पहले दो और शूद्र को तो केवल गृहस्थश्रम ही लभ्य है, ब्रह्मचर्य में विद्यार्जन, गृहस्थाश्रम में संतानोत्पत्ति, वानप्रस्थ में निर्लिप्तता के साथ अध्ययन करना, सन्यास में जंगल में जाकर ज्ञान साधना करनी पड़ती है । गुरू बसवादि प्रमथों ने इस विभजन का विरोध किया। जन्म से ही कोई श्रेष्ठ या कनिष्ठ नहीं होता ऐसा कहकर उन्होंने सभी को विद्यार्जन करने का और ज्ञान साधना का मौका दिया। उन्होंने इन्सानों का मानव और शरण (संत) इन दो ही विभागों में वर्गीकरण किया। अज्ञान के अंधकार में भटकनेवाला मानव और सुज्ञान के उजाले में चलनेवाला शरण (संत) कहलाया। उन्होंने अज्ञानी मानव को सुज्ञानी शरण (संत) बनने का अवसर दिया। लिंगायत समाज में वर्ण और आश्रमों का पालन बिल्कुल ही नहीं है ।

"चतुर्वर्ण व्यवस्था देवनिर्मित है। इसे बदल नहीं सकते। अगर बदलने जायें तो वह दैवद्रोह, होगा । इस पर विश्वास रखकर पालन करनेवाले ही हिन्दू हैं।" ऐसा कई लोगों का दृढ़ विश्वास है। इसके लिए सनातनी ये तर्क प्रस्तुत करते हैं "चातुर्वर्णम् मया सृष्टय" ऐसा भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है । यह परमात्मा ने ही कहा है तो हमें उसे देवशासन मानकर विश्वास रखना चाहिए। इस व्याख्या के अनुसार चतुर्वर्ण व्यवस्था देवनिर्मित है ऐसा न माननेवाले सारे अवैदिक धर्मों को हिन्दू कक्षा से बाहर रखना पडेगा।

अतिवर्णाश्रम समाज शास्त्र का प्रतिपादन करने वाले लिंगायत ध र्म आदि अवैदिक मत इस व्यवस्था को देव निर्मित न मानते हुए मानव कल्पित बताते हैं । भगवद्गीता के इस श्लोक से कैसी गलतफहमी फैलायी गयी है यह अब देखेंगे। "चतुर्वर्ण मुझ से (श्रीकृष्ण से) गुणकर्मों के आधार पर निर्मित हुए हैं।" ऐसा श्रीकृष्ण ने (इमानदारी से ) कहा है। इसे अपरिवर्तनीय व्यवस्था के रूप में सुरक्षित बनाने के लिए श्रीकृष्ण को जगन्नियंता कर्ता बताकर अतर्क्य तर्क के बलपर इसे साबीत किया गया।

श्रीकृष्ण ने चतुर्वर्ण व्यवस्था बनाई। श्रीकृष्ण भगवान है, इसलिए भगवान ने ही चतुर्वर्ण व्यवस्था बनाई। यह एक विचित्र तर्क है । " श्रीकृष्ण भगवान है' इस उक्ति में ही बहुत बड़ा तार्किक दोष है । श्रीकृष्ण ने इस व्यवस्था को मज़बूत बनाया होगा। लेकिन हमसे इसका कोई संबंध नहीं यह अवैदिक धर्मों का दृष्टिकोण है। इसे भगवान याने सृष्टिकर्ता ने किया है क्या? यह असाध्य है । वर्ण और जाति व्यवस्था भगवान द्वारा निर्मित नहीं हुई ।

1. जो देवनिर्मित होता है वह सभी जगह एक-सा होता है। स्त्री-पुरुष देव द्वारा निर्मित जातियाँ है । सभी देशों में स्त्री, ही होती है और पुरुष, पुरुष ही होता है। पक्षी खेचर प्राणी है; मछली जलचर, गाय-भैंस आदि भूचर प्राणी हैं। सभी देशों में यही व्यवस्था है, तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी देशों में क्यों नहीं है? यह विभजन अगर देव निर्मित है तो सभी जगह यही व्यवस्था होनी चाहिए थी ।

2. देव निर्मित भिन्न जातियों के प्राणी आपस में संग नहीं करते। किया तो भी संतानोत्पत्ति नहीं होती । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के स्त्री पुरुष संग करते हैं तो उनकी संतान नहीं होती क्या? होती ही है। इसके कई उदाहरण हैं ।

3. देव निर्मित जातियाँ तोता, कौआ, चिड़ियों, बाघ, भालू इनको किसी भी संस्कार से बदला नहीं जा सकता। लेकिन मानवों को धर्म संस्कार से परिवर्ति करके उनका पूर्वश्रय मिटाना साध्य है । धर्म संस्कार से अस्पृश्य की अस्पृश्यता, शूद्र की शूद्रता का निरसन होता है।

अति वर्णाश्रम समाज व्यवस्था को माननेवाले और प्रतिपादन करनेवाले अवैदिक धर्म मानव-शरण (संत), भवी-भक्त, बद्ध-बुद्ध, अज्ञानी-सुज्ञानी इन दो वर्गों में ही विभजन करते हैं। वह भी आचार - ज्ञान और अनुभाव की बुनियाद पर, जन्म के आधार पर नहीं। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:-

रजस्वला हुए बिना पिंढ केलिए गर्भ में आश्रय नहिं
शुक्ल शोणित का व्यवहार एक ही है,
आशा आमिष रोष हर्ष विषयादि सुख सब में एक ही है,
जो भी पढ़े, जो भी सुने क्या प्रयोजन?
श्रेष्ठ कुल का कहने का क्या लक्षण है?
’सप्तधातु समं पिंढं समयोनिसमुद्‍भवम्।
आत्म जीव समायुक्तं वर्णानां किं प्रयोजनम् ॥’
कहा गया है इसलिए
लोहा गरमकर लोहार कहलाया
कपडा धोकर धोबी कहलाया
कपडा बुनकर जुलाहा कहलाया
वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाया
कानो में क्या किसी का जन्म हुआ है जग में
इसलिए हे! कूडलसंगमदेव।
लिंगस्थल को जाननेवाला ही कुलज है।
-428

सब की पिंडोत्पत्ति एक ही प्रकार से, जन्म लेना भी एक ही तरह से, पैदा होने के बाद शारीरिक-मानसिक क्रिया कलाप भी एक ही तरह के होते हैं। तो फिर इस वर्ण व्यवस्था का कोई अर्थ है क्या? जो लोहे को गरम करता है वही लोहार है, कपड़े धोने वाला ही धोबी, बुननेवाला ही जुलाहा और वेद पाठ करने वाला ही ब्रह्मज्ञानी । अप्राकृतिक रूप से कोई जन्म लेता है क्या? परमात्मा को जाननेवाला ही कुल श्रेष्ठ है। इस तरह सभी एक ही तरह से जन्म लेते हैं, अतः कोई भी जन्मतः ऊँच नहीं-नीच नहीं। उनकी साधना के बल पर ही उन्हें श्रेष्ठत्व की प्राप्ति हो सकती है। व्यक्ति किसी भी जाती में जन्म ले तो भी अपने सत् संकल्प और साधना से उत्तुंग स्थान पर पहूँच सकता है।

गुरू बसवेश्वरजी ने वर्णाश्रम का भेदभाव किए बिना सभी के लिए धर्म का महाद्वार खोल दिया। इसलिए सभी वर्णवाले अपना जीवन दैवीमयं कर सके । अनुभव मंटप के शरणों (संतों) में शूद्र और पंचम वर्णवाले ही अधिकतम संख्या में थे । उच्च जातिवालों ने बाद में ही प्रवेश किया । लिंगी ब्राह्मणों का प्रवेश होने के बाद ही लिंगायत धर्म की मूलभूत प्रखरता दुर्बल हुई ।

'लिंगायत हिन्दू हैं' ऐसा कहनेवालों को एक प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा। सनातन वैदिक धर्म के अनुसार 'जन्मना जायते शूद्र : संस्कारात् द्विज उच्छते!' जन्म से सभी शूद्र हैं, द्विाज संस्कार के बाद वे द्विज बनते हैं। जनेऊ धारण और गायत्री मंत्रोपदेश ही द्विज बनाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को यह संस्कार प्राप्त है। शूद्रों को नहीं । 'लिंगायत हिन्दू हैं ऐसा कहें तो जनेऊ धारण, उपनयन और गायत्री मंत्रोपदेश न होने के कारण उन्हें शूद्र वर्ण में शामिल होना पड़ेगा। एक स्वतंत्र धर्म के अनुयायी होनेपर भी, उन्हें हिन्दू धर्म में शामिल करके शूद्र वर्णियों के स्थान पर रखने का डॉ० चिदानंद मूर्ती जैसों का प्रयत्न हास्यास्पद है। किसान, गड़रिया, कुम्हार, धोबी आदि श्रमिक-वर्गवालों को शूद्र वर्णीय बनकर रहना पड़ेगा और धार्मिक हकों से वंचित होकर रहना एक अनिवार्य सत्य है ।

5. केवल द्विजों को ही उपनयन :

वैदिक (हिन्दू) धर्म का मुख्य संस्कार उपनयन केवल द्विज-वर्णीय याने ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों को ही लभ्य है । उपनयन की मुख्य विधि याने यज्ञोपरित धारण करना और गायत्री मंत्रोपदेश । यह द्विज संस्कार केवल तीन वर्णवालों को ही लभ्य है। चतुर्वर्णवाले शूद्र और पंचम वर्णवाले अछूतों को द्विज संस्कार नहीं। सभी वर्णों की महिलाओं को शूद्र माना जाता है। उनको भी द्विज संस्कार नहीं है।

लिंगायत धर्म में केवल भवी-भक्त, मानव-शरण (संत) ये दो वर्ग ही किये जाते हैं। भवी संस्कार से भक्त बनता है। अज्ञानी मानव ज्ञान और अनुभाव से शरण या संत बनता है । जन्मतः सभी मानव बनके ही जन्म लेते हैं, संस्कार - ज्ञान और अनुभाव से शरण (संत) बनते हैं। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:

खाने के कटोरे का कांसा अलग नहीं
देखने के दर्पण का कांसा अलग नहीं
कांसा और बर्तन अलग-अलग नहीं
साफ़ करने से दर्पण-सा लगने लगा
ज्ञानि हो तो शरण, अज्ञानि में हो तो मानव
कूडलसंग की पूजा करना न भूलो -65

वैदिक हिन्दू धर्म में अन्यों को शामिल करने के लिए दीक्षा संस्कार रूपी प्रवेश द्वार ही नहीं है। इसीलिए कई लोग धर्मांतरण करके हिन्दू ध ार्म की कक्षा से बाहर जाते है। स्वयंप्रेरणा से हिन्दू धर्म में प्रवेश करने को उत्सुक लोगों के लिए कोई मौका ही नहीं है। हिन्दू धर्म की कक्षा से बाहर गये हुए धर्मांतरित व्यक्तियों को भी पुनः स्वधर्म में आने के लिए कोई मौका ही लभ्य नहीं है |

लिंगायत धर्म का संस्कार इष्टलिंग दीक्षा । यह सब को लभ्य है । गुरू दीक्षा द्वारा इष्टलिंग देकर मंत्रोपदेश करके धर्मस्वीकार कराते हैं। जाति-मत-पंथ, धर्म और लिंग भेद किये बगैर सभी मानवों को यह धर्म संस्कार लभ्य है। दीक्षा के बाद सभी समान माने जाते हैं ।

6. स्त्रियों को उपनयन नहीं:

सभी वर्णों की स्त्रियों को शूद्र ही माना गया है, शूद्र वर्ण के पुरूषों को उपनयन नकारा गया उसी तरह स्त्रियों को शूद्र मानकर उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित किया गया। श्री दयानंद सरस्वतीजी ने इस हालात को सुधारना चाहा, वेद काल में महिलाओं को उपनयन संस्कार के द्वारा यज्ञोपवित दिया जाता था ऐसा कहके महिलाओं तथा शूद्र वर्णीय पुरुषों को भी उन्होंने उपनयन संस्कार का मौका दिया। लेकिन उनको संप्रदायवादियों के विरोध का सामना करना पड़ा और ये आंदोलन बलहीन होने के कारण टिक नहीं पाया।

महिला रंजस्वला (ऋतुमती) होने के कारण उसे उपनयन नहीं किया जाता। उसे द्वितीय स्तर की प्रजा का दर्जा दिया गया। ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखनेवाले आचार्य शंकर, रामानुज और मध्व ने शूद्रों को मोक्ष नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया।

शूद्रों को, स्त्रियों को मोक्ष नहीं,
क्योंकि उन्हें उपनयन नहीं,
यज्ञ-यागादि करने का अधिकार नहीं,
क्योंकि उन्हें उपनयन नहीं ।
(बादरायण के ब्रह्मसूत्र, I iii सूत्र 34-38)

इसमें सूत्र 38, मनु स्मृति आदि स्मृतियों में शूद्रों के लिए वेदों का श्रवण-अध्ययन-अर्थ इन सबका निषेधन किया गया है इसलिए उन्हें ब्रह्मविद्या पाने का अधिकार नहीं है

7. हिन्दू धर्म - बहुदेवतोपासना:-

सारी दुनिया में बहुदेवतोपासना का आचरण करने वाला धर्म केवल हिन्दू धर्म ही है । पुरातन ग्रीक देश और अरब देश आदि देशों में क्षुद्र देवताओं की उपासना बहुत प्राचीन काल से चली आ रही थी लेकिन इसाई और इस्लाम धर्म के फैलने के बाद विविध आकार के अनेक देवताओं की पूजा बंद हुई और एक ही देव की परिकल्पना साकार हुई । तब से केवल एक ही देव की आराधना शुरू हुई और बहुदेवताओं की उपासना रूक गई। लेकिन हिन्दु धर्म में एक देव की परिकल्पना उपनिषदों के काल से साकार होने पर भी वह न बढ़ी, न मजबूत हुई । केवल बहुदेवता पासना ही दृढ़ता से बढ़ी। जैसे चिखुरन बढ़ती है तब फसल बरबाद होती है, वैसे ही अंधश्रद्धा बढ़ती है तो देव की सही परिकल्पना लोगों के मन से दूर हो जाती है।

हिन्दुओं में 9 प्रकार की उपास्य वस्तुओं को पहचाना जा सकता है:-

1. भूत-प्रेतों की पूजा
2. पौराणिक देवताओं की पूजा
3. पंच भूतों की पूजा
4. पेड़-पौधों की पूजा
5. प्राणियों की पूजा
6. प्रेतात्माओं की पूजा
7. गुरु (संतों) की पूजा
8. विभूति (महात्माओं) की पूजा
9. देव पूजा

अत्यन्त नीचले स्तर की और भय के आधार पर भूत-प्रेतों की पूजा की जाती है। उन्हें मुर्गी, बकरी आदि की बलि चढ़ाई जाती है। ऐसे हीन आचरण हिन्दू धर्म में हैं ।

काल्पनिक पौराणिक देवताओं की संख्या तो इतनी बेशुमार है कि उनकी गिनती ही नहीं कर सकते। नव ग्रह, लक्ष्मी-सरस्वती जैसी देवतायें तो बिल्कुल काल्पनिक हैं। कई और देवता ऐसे हैं जो किसी समय में ऐतिहासिक रूप से अस्तित्व में थे ऐसा मान लें तो भी उनका चरित्र अत्यन्त हीन स्तर का है । उदा:- इन्द्र, तुलसी पूजा के पीछे विष्णु का चरित्र |

हिन्दू धर्म में दो प्रकार के आचरण हैं।
1. वेद, आगम आदि शास्त्रीय ग्रंथों पर आधारित शास्त्रीय (Classical) आचरण।
2. आदिवासी और पिछड़ी जातियों से आये हुए क्षुद्र आचरण । उदाहरणार्थ: होम-हवन शास्त्रीय आचरण हैं तो पेड़-पौधे-लताओं की पूजा क्षुद्र आचरण । इन दोनों का लिंगायत धर्म में निषेध किया गया है। अग्नि पूजा और अग्नि साक्षी इन सब को दूर रखा गया है। उसी तरह तुलसी-बिल्व (बेल), बरगद का पेड़-पीपल को पेड़, आक-शमी आदि पेड़-पौधों की पूजा का लिंगायत धर्म में निषेध किया गया है। हिन्दूओं में बड़ी श्रद्धा से की जानेवाली गाय, नाग, चूहा, बंदर, हाथी आदि प्राणियों की पूजा लिंगायत धर्म में निषेधित है।

हिन्दूओं में प्रेतात्मा पूजा मतलब पितृ पूजा अधिक प्रचलित है। मरे हुए पूर्वजों को स्वर्ग प्राप्त हो इस हेतु से पुण्यतिथी, पिंडदान करने का परिपाठ है । 'पितृ पक्ष' के नाम से एक विशेष समय भी उसके लिए निश्चित किया गया है। उस समय में विशेष रूप से श्राद्ध आदि विघियाँ की जाती है। ग्रामीण भाषा में उसे 'पुरखों का त्यौहार कहके मनाया जाता है। लिंगायत धर्म में इन सबका निषेध किया गया है।

लिंगायत धर्म वैचारिक धर्म है। इस धर्म में केवल जंगम (संत, महात्मा) की पूजा को ही मान्यता दी गई है और जंगम याने संत-महात्मा को देव का प्रतिनिधी मानकर गौरव दिया जाता है। गुरू बसवेश्वरजी, अल्लम प्रभुदेवजी, सिद्धरामेश्वरजी जैसे महानुभावों को विभूति पुरुष मानकर गौरव से पूजा जाता है। 'देव निराकार है' ऐसी घोषणा करके, धर्म गुरु बसवेश्वरजी ने सृष्टिकर्ता कूडलसंगम देव के चिन्ह के रूप में इष्टलिंग दिया । इसके सिवा किसी की भी पूजा करने की इज़ाज़त नहीं । लिंगायत धर्म में हिन्दु देवता गणेशजी, राम, कृष्ण, हनुमान, विष्णु, देवी, लक्ष्मी, सरस्वती इनमें से किसी भी देवता की पूजा नहीं की जाती। हिन्दू त्रिमूर्तियों में से एक देवता महेश्वर (शिव) की भी आराधना नहीं की जाती । लिंगायत धर्म के संविधान वचन साहित्य में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है।

8. हिन्दू धर्म की तीर्थक्षेत्रों पर आस्था:-

हिन्दू धर्म की भौतिक तीर्थक्षेत्रों में अपार श्रद्धा है। काशी, रामेश्वर अयोध्या, तिरूपति, मथुरा जैसे क्षेत्रों का दर्शन अत्यन्त पावन माना जाता है । इनके दर्शन से पापों का निवारण होकर पुण्य फल की प्राप्ति होती है ऐसा माना जाता है ।

भारत देश में बहनेवाली गंगा, यमुना, कावेरी, तुगभद्रा आदि नदियों में तीर्थक्षेत्रों के तालाब और झीलों में डुबकी लगाने से पाप का क्षय होकर पुण्य प्राप्ति होती है ऐसा माना जाता है। विशेष दिनों में, विशेष मुहूर्तों में ऐसी नदी, पुष्करिणीयों में डुबकी लगाने से अपार पुण्य प्राप्ति होती है ऐसा माना जाता है। नदी तट के गंदे पानी में हजारों लोग डुबकीयाँ लगाते हैं और उसी पानी को तीर्थ मानकर पीते हैं यह हम हमेशा देखते हैं।

किसी भी भौतिक स्थान के केवल दर्शन से पुण्य प्राप्ति होती है इस बात को लिंगायत धर्म नहीं मानता। कोई भी भौतिक स्थान हो, नदी हो या पुष्करिणी हो, उसे पवित्र नहीं माना जाता । भौतिक जल में स्नान करते ही पाप का निवारण होकर पुण्य प्राप्ति होती है इस बात को नहीं माना जाता । व्यक्ति अपने बुरे कर्मों से कलंकित बनता है । पश्चाताप से ही शुद्ध बनता है। अच्छे कर्मों से पुण्यवान बनता है ऐसा दृढ़ता से माना जाता है। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:-

नदी में नहानेवाले भाईयों
नदी में नहानेवाले स्वामियों
त्याग दो त्याग दो परनारीसंग त्याग दो।
परधन लालसा त्याग दो,
इन्हें त्यागे बिना नदी में नहाने से
व्यर्थ होता है, कूडलसंगमदेव । / 222

तन नंगा रहने से क्या हुआ
जबकि मन ही शुद्ध न हो?
सिर मूँड़ाने से क्या हुआ
जबकि भाव ही लय न हो?
भस्म लगाने से क्या हुआ
जबकि इंद्रिय गुणों को जलाएँगे नहीं?
इस प्रकार आशा व वेष के ढोंग पर
गुहेश्वर तेरी कसम, दुत्कारुँगा। /530 [1]

नहाकर की पूजा ईश्वर की
कहनेवाले संदेही मानव, सुनो तो,
क्या नहाएगी नहीं मछली?
क्या नहाएगा नहीं मगरमच्छ?
स्वयं नहाकर, जब तक नहाओगे नहीं अपने मन को तो
इस चमत्कार की बात को मानेगा क्या
हमारा गुहेश्वर? /593 [1]

भटक-भटक कर आने से क्या हुआ?
लाख गंगा में नहाने से क्या हुआ?
मेरु गिरि की चोटी पर होकर खड़े पुकारने से क्या हुआ?
व्रत-नियमों से नित तन को दंडित करने से क्या हुआ?
जो मन करता नित सुमिरन, ध्यान
छलांग इत उत लगाते मन को
चित्त में केंद्रित कर सके तो
गुहेश्वर लिंग केवल शून्य का प्रकाश है। /625

बारहवी सदी के संत बसवयोगी श्री सिद्ध रामेश्वरजी अपने एक वचन में कहते हैं:-

दुखाकर मन एक का, करके बरबाद घर दूजे का
लगाई डुबकी गंगा में तो होगा क्या?
चंद्र गंगा के तट में होने से क्या?
हुआ नहीं दूर कलंक ।
इस कारण, न दुखाये मन जो किसी का,
करे न बुरा जो किसी का, है वही
परम पावन देखो, कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन ।

सत्रहवीं सदी के क्रान्ति कवि सर्वज्ञजी इस बारे में यों कहते हैं:-

नित्य गंगा में डुबकी लगनेवाला, जावे स्वर्ग तो
कई जन्म लेने वाला मंडूक जल का
जायें न स्वर्ग क्यों ? कहे सर्वज्ञ ।

शरण-संत, ज्ञानी जहाँ कदम रखते हैं, जहाँ वास करते हैं वे स्थान ही सचमुच जंगम क्षेत्र हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं शरण जन (संत-महात्मा) । लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उस स्थान का दर्शन करने मात्र से कोई व्यक्ति पुण्यवान बन जाता है। इस बात को लिंगायत धर्म नहीं मानता । व्यक्ति को खुद साधना करके अंतरंग और बहिरंग शुद्धि साधनी चाहिए इसीलिए बारहवीं सदी की महायोगिनी जगन्माता अक्क महादिवीजी अपने एक वचन में यों कहती हैं:-

प्रभो, आप के संतों ने रौंदी हुई धरा है पावन,
प्रभो, आप के संत रहें जहाँ, वह पुर है कैलास,
प्रभो, आप के संत खड़े जहाँ, वही देव निवास,
हे चन्न मल्लिकार्जुन, आप के शरण
बसवेश रहे जहाँ, वह बना अविमुक्त क्षेत्र
करूँ मैं नमन गुरु बसवेश के श्री चरणों को

जा सकेगा कल्याण में क्या अन्य कोई?
जा नहीं पायेगा, है असाध्य यह ।
आशा - आमिष मिटे बगैर, न बढ़ाना कदम कल्याण की ओर,
भीतर-बाहर हुए बिना शुद्ध, न जाना कल्याण की ओर,
अहं भाव मिटे बगैर जाना नहीं कल्याण की ओर,
भूलके बाह्य को, जानके भीतर, चाहके चन्नमल्लि कार्जुन को
मिटाकर उभय लज्जा को
देखकर कल्याण को कर रही हूँ नमन ।

9. ज्योतिष, मुहूर्त और जन्म कुंडली:

हिन्दू धर्म ज्योतिष पर बहुत विश्वास करता है। बच्चे का जन्म होता है तब जन्म कुंडली बनाना, शादी के बक्त जन्म कुंडलियों का मिलाना, शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त देखना, समय में भी श्रेष्ठ, कनिष्ठ, विपत्तकारी ऐसा भेद करना, इमारत खड़ी करते वक्त वास्तु देखना, ग्रह शांति के लिए होम-हवन या पूजा करना हिन्दू धर्म में स्वाभाविक रूप से चलता रहता है। लेकिन लिंगायत धर्म इन सबका निराकरण करता है। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:-

हमारे शरण पूछे तो शुभ मुहूर्त कहिए
राशीकूट ऋणसंबंध है - ऐसा कहिए
चंद्रबल ताराबल भी है कहिए
कल से आज का दिन ही श्रेष्ठ कहिए जी
कुडलसंगमदेव की पूजा का
फल आपका है। / 101

सबके मन एक हो जाएँ तो वही उत्तम मुहूर्त है ऐसा समझना चाहिए। एक और वचन में गुरू बसवेश्वरजी कहते हैं:-

आज कल कहकर मत टालो
आज का ही पावन दिन है- ’शिवशरण’ कहनेवाले को,
आज का ही पावन दिन है- ’हर शरण’ कहनेवाले को,
आज का ही पावन दिन है- अपने कूडलसंगमदेव को
निरंतर स्मरण करनेवाले को। /8 [

कहाँ का शुभ मुहूर्त, कहाँ का विघ्न, प्रभो ?
कहाँ का दोष, कहाँ का दुरित, प्रभो ?
स्मरण आपका करे सदा,
उसे कहाँ भव-बंधन, कूडलसंगम देव ?

सृष्टिकर्ता और सर्वशक्तिमान ऐसे कूडलसंगम देव पर भरोसा रखने के बाद फिर डर कैसा? सारा जगत् देव की अधीनता में ही तो चलता है। मानव कल्पित ज्योतिष, वास्तु शास्त्र आदि भ्रम व्यक्ति को मानसिक रूप से दुर्बल बनाते हैं। काल या समय में राहु काल, यमगंड काल कहकर भेदभाव करना गलत है ऐसा कहकर गुरू बसवेश्वरजी और उनके समकालीन शरणों ने उसका खंडन किया। उनका प्रतिपादन यह था कि समय में बुरा समय, अच्छा समय ऐसा कुछ भी नहीं । व्यक्ति के अच्छे या बुरे कर्मों से समय अच्छा या बुरा कहलाता है। इस तरह हिन्दू धर्म जिन ज्योतिष और वास्तु पर विश्वास करता है उनपर लिंगायत धर्म विश्वास नहीं करता ।

10. हिन्दू धर्म का मंदिर / लिंगायत धर्म का मंटप

हिन्दू धर्म का श्रद्धा केन्द्र देवालय अर्थात् मंदिर है । इसाईयों के लिए चर्च, मुसलमानों के लिए मस्जिद, सिक्खों के लिए गुरुद्वारा, बौद्धों के लिए विहार (संघाराम), जैनों के लिए जिन मंदिर होते हैं वैसे ही हिन्दूओं के लिए देवालय अर्थात् मंदिर श्रद्धा केन्द्र हैं । उसी प्रकार गुरु बसवेश्वरजी ने 'अनुभव मंटप' नामक संस्था आदर्श के तौर पर स्थापित करके दिखाई थी। वैसे ही निर्माण किये गए बसव मंटप लिंगायतों के लिए श्रद्धा केन्द्र हैं। गुरु बसव आदि प्रमथों की परंपरा के संत सोलापूर के सिद्धरामेश्वर, उलवी चन्नबसवेश्वर, मलेय महदेश्वर, यडेपुर सिद्धलिंगेश्वर, जेवरगी के षण्मुख शिवयोगी, कपिल धारा के मन्मथ स्वामी आदियों के समाधी स्थान, विचरण के स्थान भी लिंगायतों के श्रद्धा केन्द्र हैं। हिन्दू मंदिरों में पूजा करने का हक ब्राह्मणों का होता है तो लिंगायतों के बसन मंटपों में और संतों के समाधी स्थानों पर लिंगायत धर्म की दीक्षा पाये हुए किसी भी जाति के शरणों को पूजा करने का हक होता है और कोई भी वहाँ प्रवेश कर सकता है। बसव मंटप केवल भक्ति के केन्द्र ही नहीं बल्कि ज्ञान दासोह (दान) के केन्द्र भी होते हैं।

11. हिन्दूओं में मांसाहार - शाकाहार दोनों ही हैं:-

हिन्दूओं के कुछ समुदाय शाकाहारी हैं तो कुछ समुदाय मांसाहारी होते हैं। ब्राह्मणों में कुछ समूह, वैश्य समुदाय के लोग तथा स्वयं इच्छा से शाकाहारी जीवन पद्धति का स्वीकार करनेवाले मात्र शाकाहारी होते हैं। बाकी ज्यादातर मांसाहारी होते हैं। लिंगायत धर्म में शाकाहारी जीवन पद्धति का अनिवार्य रूप से प्रतिपादन किया गया है।

दया रहित धर्म क्या करेगा ?
सभी जीवों के प्रति दया दिखानी चाहिए।
दया ही धर्म का सार है जी,
कुडलसंगय्या दया रहित को न मानता है। / 223

12. होम-हवन, यज्ञ-याग हिन्दू धर्म में हैं:-

हिन्दू धर्म की अत्यन्त प्रमुख विधि है होम-हवन । होम कुंड बनाकर अग्नि के द्वारा हविष्य अर्पण करते हैं, इस श्रद्धा से कई वस्तुएँ होम कुंड की अग्नि में डाली जाती हैं। अज याग में बकरे की, अश्वमेध याग में घोड़े की, गज याग में हाथी की इस तरह इनकी शास्त्रोक्त रूप से बलि दी जाती है।

योगीराज शिवजी यज्ञ-याग के विरोधी थे । दक्ष ब्रह्म के यज्ञ का वीरभद्र ने नाश किया था यही इसका गवाह है। रामायण काल में होम, यज्ञ कुंड में पानी डालकर राक्षस उंसकी अग्नि को बुझाते थे । इसलिए यज्ञ की रक्षा करने के लिए राम-लक्ष्मण को बुलाकर ले जाने का प्रसंग रामायण में प्रस्तावित किया गया है। वे राक्षस नहीं शिव भक्त थे । वे यज्ञ विरोधी थे, इसीलिए यज्ञ का भंग करते थे। अमूल्य वस्तुओं को यज्ञ की अग्नि में डालकर जला देने की इस धार्मिक विधि का क्रांति पुरुष बसवेश्वरजी ने विरोध किया है।

अग्नि को दैव मान विप्र घर में हवन देते।
शोला बन जले तो गंदि पानी, धूल झोंकते।
बिललाते पुकारते कूडल संगम देव,
वन्दना को भूलकर खरीखोटी सुनाते देव॥

पंचभूतों में से एक है अग्नि ! इसे दैव मानकर आराधना करने के लिए उसमें घी डालकर मंत्रपाठ करनेवाला ब्राह्मण, उसके घर आग लगती है, तब क्यों मंत्रपाठ नहीं करता? आग को गालियाँ देते हुए उसे बुझाने के लिए मोरी का पानी उलीचता है और राह की धूल झोंकता है। घर को अग्नि देव ने नैवैद्य के रूप में स्वीकार किया है ऐसा क्यों नहीं सोचता ? यों सवाल करते हैं गुरू बसवेरवरजी। अज यज्ञ का खंडन करते एक वचन में कहते हैं:-

बात-बात में मार रहे तुझे, ये जान
रो रहे हो क्या, रे अज!
वेदपाठियों के सामने रो रहे हो क्या !
शास्त्रवेत्ताओं के सामने रो रहे हो क्या!
तेरे रुदन की उन्हें देंगे शिक्षा हमारे कूडलसंगम देव ।

अज यज्ञ में बकरे की बलि दी जाती है। इस मूर्खता का उन्होंने तीक्ष्णता से खंडन किया है। इसीके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक और वचन में यों कहते हैं:

खाकर ताडी का फल कहे सियार घूमे सृष्टी
तिलकधारी द्विजों की बात ये कैसी?
दिन देखे बिना कहे उल्लू हुई रात तो
जग में रात होगी क्या, बावले?
होम के बहाने अज को मार खानेवाले
अनामिकों के साथ कर चर्चा जीतना क्या; कूडलसंगम देव ?

पूजा, प्रार्थना, ध्यान करके देव की आराधना करनी चाहिए। अग्नि को हविष्य अर्पित करके देव की उपासना नहीं हो सकती ऐसा गुरू बसवेश्वरजी ने साफ-साफ कहा है। वेदों के ज्ञान कांड पर उन्होंने ज्यादा टीका नहीं की लेकिन कर्मकांड के बारे में प्रखरता से टीका की है। ये यज्ञ-याग द्विज वर्णवालों द्वारा किये जानेवाली धार्मिक विधियाँ हैं तो चण्डी, दुर्गा, काली आदि उग्र देवताओं को बकरी, भैसा, मुर्गा इनकी बलि चढ़ाने की क्रूर परंपरा हिन्दू धर्म में है। इसका भी लिंगायत धर्म में खंडन किया गया है। ऐसे मुग्ध गूँगे प्राणियों को मारके सृष्टिकर्ता के कोप का भाजन होना पड़ेगा ऐसी चेतावनी देता है।

'भेड़ मरके रक्षेगी क्या शिव कोप भाजनों को?' ऐसा सवाल करते हुए वे उपदेश देतें हैं कि "नहीं चाहिए भेड़, नहीं चाहिए मेमना, लाकर सिर्फ बिल्व पत्र करो पूजा कूडलसंगम देव की

13. विवाह में अग्नि साक्षी, सप्त पदी, पौरोहित्य है,

वैदिक धर्म अग्नि साक्षी मानता है। लिंगायतों में अग्नि को प्रामुख्यता नहीं दी जाती। वैदिक धर्म में अग्नि साक्षी को बहुत महत्व दिया गया है। सभी धार्मिक विधियों में होम-हवन किया जाता है और विवाह में अग्नि साक्षी ही मुख्य विधि है। लिंगायत धर्म अग्नि साक्षी नहीं मानता। यहाँ सप्तपदी नहीं है। गुरु-लिंग-जंगम को साक्षी मानकर विवाह किया जाता है

14. हिन्दू धर्म में द्विजों का शव जलाते हैं ।

हिन्दू धर्मियों के शवों का अग्नि में दहन किया जाता है, लिंगायतों में शवों को गाड़ा जाता है। इसका उद्देश्य ये है कि पंचभूतों में पंचभूतात्मक शरीर को विलीन करना, प्रकृति से प्राप्त काया को प्रकृति में समर्पित करके, शुद्धत्व को प्राप्त अंग (आत्मा) सच्चिदानंद नित्य परिपूर्ण लिंग (परमात्मा) देव में समरस (विलीन) करना ही लिंगायत धर्म के शून्य सिद्धांत का लक्ष्य है।

15. पुरोहित के द्वारा पूजाः

वेदोक्त हिन्दू धर्म में पुजारी के द्वारा पूजा संपन्न होती है। शास्त्रीय शिष्ट देवताओं की पूजा केवल ब्राह्मण को ही करने का अधिकार है । पुजारी पूजा करता है और भक्तजन दर्शन -तीर्थ-प्रसाद प्राप्त करते हैं। लिंगायत धर्म में भक्त ही सीधा गुरू-लिंग-जंगम की पूजा करके, करूणोदक तथा करूण प्रसाद पाता है। विधवा या सुहागन ऐसा भेदभाव किये बिना सभी को पूजा करने का मौका यहाँ मिलता है। अपने एक वचन गुरू बसवेश्वरजी कहते हैं:-

अपना रति-सुख और भोजन
क्या दुसरों से कराया जा सकता है?
इष्टलिंग की आराधना स्वयं करनी जाहिए,
न कि दुसरों से कराई जा सकती है।
दुसरों से नाम मात्र की आराधना होगी,
वे क्या आपको पहचानेंगे? हे कूडलसंगमदेव। /215

16. हिन्दू धर्म में अंतर्वर्णीय, अंतर्जातीय विवाह नहीं हैं:

वैदिक हिन्दू धर्म में चार वर्ण हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । जातियाँ सैंकडों हैं। विभिन्न वर्ण और जातियों के लोगों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होते । वर्ण और जातियों को न माननेवाला लिंगायत धर्म किसी| को भी दीक्षा देकर विवाह सम्बन्ध संपन्न करा सकता है ।

17. जन्म से हिन्दू, पर अन्यों का स्वीकार नहीं हो सकता :

हिन्दू धर्म का अनुयायित्व जन्म से प्राप्त होता है। हिन्दुओं को छोड़कर अन्यों को धर्मांतरण के द्वारा हिन्दू बनाने के लिए कोई भी दीक्षा संस्कार या मंत्रोपदेश नहीं है। द्विजों का लक्षण याने जनेऊ और गायत्री मंत्रोपदेश अन्यों को दिया नहीं जा सकता। लिंगायत धर्म में इष्टलिंग दीक्षा संस्कार है। गुरू के द्वारा लिंग दीक्षा संस्कार पाकर कोई भी व्यक्ति लिंगायत समाज में प्रवेश कर सकता है। इस तरह दीक्षित व्यक्तियों के बीच में रोटी-बेटी का व्यवहार हो सकता है।

18. हिन्दू धर्म पंच सूतकों को मानकर आचरण में लाता है:

जिस घर में शिशु जनन हो वहाँ जनन सूतक, जिस घर में किसी की मौत हो वहाँ मरण सूतक, भिन्न जातियों के लोगों का एक दूजे को छूने से होनेवाला सूतक, स्त्री रजस्वला होने पर रजोसूतक, वस्तुयें जूठी होने से सूतक शौच (शुद्धता) बिगड़ने से सूतक होता है यह भ्रांतियाँ हिन्दूओं में होती हैं । लिंगायत धर्म इन सूतकों को नहीं मानता।

19. पाप का प्रायश्चित है:-

कुछ घटनायें घटित होने पर पाप कर्म हुआ यह भावना उत्पन्न होती है तब उसके प्रायश्चित के रूप में कई पूजा व्रत और दान आदि किये जाते हैं। हिन्दू धर्म में पाप का पायश्चित है तो लिंगायत धर्म केवल पश्चाताप (Repentance) को मानता है प्रायश्चित को नहीं। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने एक वचन में यों कहते हैं:

अरे, अरे, पाप कर्मों को करनेवाले,
अरे, अरे, ब्रह्म हत्या को करनेवाले,
आओ शरण में इक बार प्रभु की
इक बार शरण में आने से मिटेंगे पापकर्म
सर्व प्रायाश्चित के लिए हैं स्वर्ण परबत !
आओ एक की शरण में अपने कूडलसंगम देव की!

20. उपवास-व्रत

परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए उपवास व्रत रखना, विविध देवताओं के नाम पर विविध दिनों में उपवास रखना, प्रायश्चित के तौर पर उपवास रखना आदि आचरण हिन्दू धर्म में है । लिंगायत धर्म में उपवास एक धार्मिक विधि नहीं है और देव को प्रसन्न करने का साधन भी नहीं है। सिर्फ स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐच्छिक रूप से उपवास कर सकते हैं।

21. हिन्दू धर्म में उद्योगों में उच्च-नीचता की भावना है:-

वैदिक हिन्दू धर्म में उद्योगों में विभजन और वर्गीकरण किया जाता
है । उसी के आधार पर उद्यमियों में भी वर्गीकरण हुआ है। लेकिन लिंगायत धर्म में जन्म के आधार पर जाति का या उद्योग का निर्धारण नहीं होता। उद्योगों को श्रेष्ठ या कनिष्ठ कहके वर्गीकरण नहीं किया जाता। समाज की प्रगति के लिए सभी उद्योग अत्यावश्यक माने जाते हैं, इसलिए उनमें भेदभाव नहीं करना चाहिए ऐसा लिंगायत धर्म कहता है। इसके बारे में गुरू बसवेश्वरजी अपने वचन में यों कहते है:

ऋतु - ऋत्व के बिना, नहीं कोई आधार पिंड को,
जल- ऋत्व को बेवहार एक हैं,
क्रिया है एक ही, आशा-आमिष,
रोष हर्ष विषयादि सारे हैं एक ही ।

शुक्ल, शोणित, मज्जा, मांस, भूख, प्यास,
व्यसन, विषयादि में एक ही है।
कृषि व्यवसाय तरह-तरह के होते हैं।
लेकिन ज्ञान पाने की आत्मा सिर्फ एक है।
किसी भी कुल के क्यो न हो, ज्ञान पाने से ही
पर-तत्व की अनुभूति मिलेगी,
भूलने से मायामल संबंधी होगा।
इस प्रकार दोनों के समझो मत भूलो
छेनी, खड्ग, हथौड़े के आधीन न हो।
जान लो निजात्मराम रामना। - 1932

वेदशास्त्र पढ़ेगा तो ब्राह्मण है
वीरतापूर्ण कार्य से क्षत्रिय है
व्यापार में जो लगा है वह वैश्य है
कृषिकार्य करनेवाला शूद्र है
इसप्रकार जातिगोत्रों में श्रेष्ठ
नीच और श्रेष्ठ दो कुल है न कि
अठारह कुल है।
ब्रम्हा को जाननेवाला ब्राम्हाण
सर्व जीवहत कर्म करनेवाला चमार है।
इस उभय को जानो, भूलो मत।
छेनी, खड्ग, हथौड़े के आधीन न हो
जानो निजात्मराम, रामना। -1931

दासि पुत्र हो या वेश्या पुत्र हो
शिवदीक्षा के बाद उसे साक्षात्
शिव समझ, नमस्कार कर, पूजाकर
पादोदक और प्रसाद लेना ही योग्य है,
ऐसा न करके उपेक्षा करनेवालों, को
पंचमहापातक नरक ही मिलेगा
हे। कूडलसंगमदेव। -224

रजस्वला हुए बिना पिंढ केलिए गर्भ में आश्रय नहिं
शुक्ल शोणित का व्यवहार एक ही है,
आशा आमिष रोष हर्ष विषयादि सुख सब में एक ही है,
जो भी पढ़े, जो भी सुने क्या प्रयोजन?
श्रेष्ठ कुल का कहने का क्या लक्षण है?
’सप्तधातु समं पिंढं समयोनिसमुद्‍भवम्।
आत्म जीव समायुक्तं वर्णानां किं प्रयोजनम् ॥’
कहा गया है इसलिए
लोहा गरमकर लोहार कहलाया
कपडा धोकर धोबी कहलाया
कपडा बुनकर जुलाहा कहलाया
वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाया
कानो में क्या किसी का जन्म हुआ है जग में
इसलिए हे! कूडलसंगमदेव।
लिंगस्थल को जाननेवाला ही कुलज है। -428

हरे एक मानव का जन्म एक ही तरह से होता है। जन्म लेने के बाद सभी शारीरिक क्रियाएँ एक ही प्रकार की होती हैं, सुख-दुःख आदि मानसिक क्रियाएँ भी एक ही तरह की होती है। सबके देह सप्त धातुओं से बने होते हैं, आत्मा और शरीर इन दोनों के मेल से मानव जन्म रूपित होता है। लोहे को तपानेवाला लोहार कहलाता है। कपड़े धोनेवाला धोबी, वस्त्र बुननेवाला जुलाहा, ज्ञानी बने वही ब्राह्मण है, कोई भी ब्रह्मज्ञानी बनकर ब्राह्मण हो सकता है। जन्म की जाति या उद्योग ज्ञानी बनने में आडे नहीं आते। जिसने परमात्मा को जान लिया, प्रसन्न कर लिया वही कुल श्रेष्ठ है ऐसा लिंगायत धर्म का मानना है । यह वैदिक हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांत से बिल्कुल अलग ही है ना?

मूलपाठ:
1) लिंगायत एक स्वतंत्र धर्म - A book written by Her Holiness Maha Jagadguru Mata Mahadevi, Published by: Vishwakalyana Mission 2035, II Block, chord Road, Rajajinagar, Bangalore-560010.

सूची पर वापस
*
Previous हिन्दू धर्म यानी क्या? लिंगायत धर्म के लक्षण Next