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देह ही देवालय

धनवान शिवमंदिर बनवाते हैं
मैं गरिब क्या कर सकता हूँ।
मेरे पैर ही खंभा, देह ही मंदिर है
सिर हि सुवर्ण कलश है
सुनोजी हे! कूडलसंगमदेव
स्थावर नाशवान है, जंगम अविनाशि है। /75 [1]

देह में जब देव मंदिर हो
तो दुसरा देव मंदिर काहे को?
इस प्रकार इन दोनों के लिए नहिं कहना चाहिए
गुहेश्वर, तुम पत्थर हो तो मै क्या होऊँ? /541 [1]

मत्र्यलोक के मानवों को
देवालय में एक मूर्ति बनाते देखकर मैं चौंक गया
प्रतिनित्य अर्चना-पूजा कराके
भोग चढ़नेवालों को देखकर मैं चौंक गया
तुम्हारे शरण ऐसी मूर्ति को पीछे रखकर चले गये गुहेश्वर। /588 [1]

देह ही मंदिर, पांव ही खंभ, शिर ही शिखर है देखो,
’हृदयकमल कार्णिक वास’ ही सिंहासन है,
महघन पर-तत्व रूपी प्राणलिंग को साकार कर
परमानंदामृत जल से नहाकर
महदलपद्म पुष्प से पूजा करके
परम परिपूर्णरूपी नैवेध चढाते हुए
प्रांणलिंग प्राण संबंधी
पूजा करता था मैं देखो,
महालिंग गुरु शिवसिद्धेश्वर प्रभु। /2338 [1]

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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