लिंगायत मे भगवान का स्वरूप (Concept of GOD in Lingayat)
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मकढ़ी सूत्र से जाला बुनने की भाँति
सूत्र के लिए धागा कहाँ से लायी?
चरखा नहिं, उसके लिए रूई नहीं, किसने सूत्र काता?
अपने तन से सूत निकाल कर फैलाता है,
उसमें बढ़े प्यार से चल फिर कर,
अंत में अपने में समेटकर रखने की तरह,
अपने से निर्मित ईस जग को अपने में
समेट लेते हैं कूडलसंगमदेव। -160 [1]
हे माता-पिता विहीन बेटे
तुम स्वयं जन्म लेकर हुए स्वयं बढ़े।
तेरा परिणाम ही हुम्हें प्राणतृप्ति है न
भेद करनेवालों के लिए अभेध होकर
तुम स्वयं प्रकाशमान हो।
हुम्हारा चारित्र, हुम्हारे लिए सहज है, गुहेश्वर। -536 [1]
पेढ के अंदर के पत्र फल
ऋतु के अधीन होकर होंगे प्रकट।
वैसे ही हर के अंदर के प्रकृति-स्वभाव
हर भाव की इच्छा के अनुरूप होंगे प्रकट,
लीला होने पर उमापति
लीला चूकने पर स्वयंभू, गुहेश्वर। -587 [1]
मेघों की ओट की बिजली जैसे
निर्वान की ओट की मरीचिका जैसे
शब्द की ओट के नी:शब्द जैसे
आँखो की ओट की रोशनी जैसे
गुहेश्वर, है आपका स्वरूप। -596 [1]
अपने विनोद के लिए स्वयं सृजन किया सारा जगत
अपने विनोद के लिए स्वयं उसमें बाँध दी सारी लौकिकता
अपने विनोद के लिए स्वयं घुमा दिया समस्त भवलोगों में
यों मेरे चेन्नमल्लिकार्जुन रूपी परशिव
अपने जगद्विलास में संतृप्त होने पर
स्वयं अपना माया पाश तोड़ डालेगा। -1191 [1]
भूमि की ओट की निधि के जैसे
फल की ओट के स्वाद जैसे
शिला की ओट का सोना जैसे
तिल की ओट के तेल जैसे
काष्ट की ओट की ज्वाला जैसे
भाव की ओट में ब्रह्मरूप में स्थित
चेन्नमल्लिकार्जुन की स्थिति
आएगी नहीं समझ में -1199 [1]
अजर अमर अरूप सलोने पर रीझ गई मैं,
स्थानविहीन, अंतहीन, अवकाशविदुर, संकेतहीन
सलोने पर रीझ गयी मैं माई।
भवहीन, भयहीन, निर्भय सलोने पर रीझ गई मैं
सीमातीत निस्सीम पर रीझ गई मैं,
चॆन्नमल्लिकार्जुन रूपी पति पर
बार बार बलि जाऊंगी, सूनो माई। -1230 [1]
अरण्य में ढूँढने के लिए वह काँटेदार काष्ट नहीं है,
नदी तालाब में ढूँढने के लिए वह मछली मेंढ़क नहीं है,
तपस्या करना चाहूँ तो वेशधारण करने से वह प्रसन्न न होता
देह को दण्डित करना चाहूँ तो वह प्रसन्न होकर देनेवाला नहीं
अष्टतनु के अंतर्य में छीपे लिंग को
साधना के द्वारा ही देखा अंबिग चौडय्या ने। -1381 [1]
असूरों की रुंड़ मालाएँ नहीं है,
त्रीशूल डमरू नहीं है,
ब्रह्म कपाल नहीं है,
भभुतधारी नहीं है,
वृषभ वाहन नहीं है,
ऋषियों के साथ कभी नहीं रहा
इहलोक का चिन्ह भी जिसका नहीं
उसका कोई नाम नहीं-कहा अंबिग चौडय्य ने। -1387 [1]
पथ्तर का भगवान् भगवान् नहीं,
मिट्टी का भगवान् भगवान् नहीं,
काष्ट का भगवान् भगवान् नहीं,
पंचलोह में निर्मित भगवान् भगवान् नहीं,
सेतू रामेश्वर, गोकर्ण, काशी, केदार
इत्यादि अष्टाषष्टि कोटि पुण्य क्षेत्रों के
भगवान् भगवान् नहीं,
अपने आप को स्वयं जानकर, यह जानने से स्वयं कौन है
स्वयं ही भगवान् है देखो
अप्रमाण कूडलसंगम देव। -2444[1]
[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.
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