पिता मेरे मोची चन्नय्य,
ताऊ मेरे चमार कक्कय्य,
देखिए पितामह मेरे चिक्कय्य,
भाई मेरे किन्नर बोम्मय्य,
आप मुझे कैसे नहीं जानते
हे, कूडलसंगमदेव -14 [1]
जाति कोई भी हो? शिवलिंग व्यक्तित्ववाला ही
श्रेष्ट जाति का है,
जाति मिश्रित हो जाने पर
क्या शिवशरणो में जाति गिनी जाति है?
शिवधर्मकुले जात: पूनर्जन्म विवर्जित:।
उमा माता पिता रुद्रा ईश्वरम् कुलमेव च॥
इसलिए, वे जो खाने देते हैं लेता हूँ -कन्या दान करता हूँ।
हे, कूडलसंगमदेव आपके शरणों पर विश्वास करता हूँ -54 [1]
यह कौन है? यह कौन है? यह कौन है?
ऐसा न कहने दीजिए।
यह अपना है, यह अपना है, यह अपना है,
ऐसा कहने दीजिए।
हे कूडलसंगमदेव
आपका पुत्र कहलाने दीजिए सदा। -64 [1]
खाने के कटोरे का कांसा अलग नहीं
देखने के दर्पण का कांसा अलग नहीं
कांसा और बर्तन अलग-अलग नहीं
साफ़ करने से दर्पण-सा लगने लगा
ज्ञानि हो तो शरण, अज्ञानि में हो तो मानव
कूडलसंग की पूजा करना न भूलो -65 [1]
प्राणि हत्या करनेवाला ही चमार,
अभक्ष्य खानेवाला ही मेहतर,
जाति कैसी, उनकी जाति कैसी?
सकल जीवों की भलाई चाहनेवाले
कूडलसंगमदेव के शरण ही श्रेष्ट जाति के हैं। -175 [1]
जाति को लेकर आशुद्धि दोष ढूँढते हो
ज्योति को लेकर अंधेरे को ढूँढते हो,
यह क्या पागलपन है रे हे। मनुज?
जाति में श्रेष्ठ कहते हो,
विप्र शतकोटि हैं तो क्या प्रयॊजन है?
भक्त ही शिखामणि- ऐसा वचन कहता है,
अपने कूडलसंग के शरणों के
पाद पारस पर विश्वास करो रे।
बुरा न बनो रे। मनुज -205 [1]
दासि पुत्र हो या वेश्या पुत्र हो
शिवदीक्षा के बाद उसे साक्षात्
शिव समझ, नमस्कार कर, पूजाकर
पादोदक और प्रसाद लेना ही योग्य है,
ऐसा न करके उपेक्षा करनेवालों, को
पंचमहापातक नरक ही मिलेगा
हे। कूडलसंगमदेव। -224 [1]
देव हे देवा सूनो प्रार्थना मेरी
विप्र से अंत्यज तक
सब शिवभक्तों, को समान समझता हूँ।
ब्राम्हाण से श्वपज तक
सब भवियों को समान समझता हूँ
इस प्रकार मातना है मन मेरा।
मेरी इस वाणी में रत्तिभर भी यदि संदेह हो तो
दाँत दिखाई पड़े ऐसा नाक काटो
हे। कूडलसंगमदेव। -229 [1]
देवभाववाले भक्त घर आए
तो यदि उनके कायक के बारे में पूछूँ तो
आपकी कसम आपके पुरानत शरणों की कसम
सिर कट जाय, सिर कट जाय हे कूडलसंगमदेव।
भक्तों में यदि जाति देखता हूँ तो
आपकी रानि की कसम! -233 [1]
थल एक ही अछुतों की बस्ती और शिवालय का
जल एक ही शौच और अचमन का
कुल एक ही अपने आपको जाननेवालो की
फल एक ही षड्दर्शन मुक्ति का
दृष्टिकोण एक ही हे कूडलसंगमदेव
आपको पहचाननेवालों के लिए। -263 [1]
राज्याभिषेक होने पर, क्या उसकी जन्मपत्री देखी जाती है?
लिंग पूजा करने पर, क्या जाति देखी जाती है जी?
कूडलसंगमदेव ने कहा कि भक्त काय मम काय है। -267 [1]
सिरियाळ को क्या वणिक् कह सकता हूँ?
माचय्या को क्या धोबी कह सकता हूँ?
कक्कय्या को क्या चमार कह सकता हूँ?
चेन्नय्या को क्या मोची कह सकता हूँ?
मैं अपने को ब्राम्हण कहूँ तो
हँस पड़ेगा कूडलसंगमदेव। -388 [1]
रजस्वला हुए बिना पिंढ केलिए गर्भ में आश्रय नहिं
शुक्ल शोणित का व्यवहार एक ही है,
आशा आमिष रोष हर्ष विषयादि सुख सब में एक ही है,
जो भी पढ़े, जो भी सुने क्या प्रयोजन?
श्रेष्ठ कुल का कहने का क्या लक्षण है?
’सप्तधातु समं पिंढं समयोनिसमुद्भवम्।
आत्म जीव समायुक्तं वर्णानां किं प्रयोजनम् ॥’
कहा गया है इसलिए
लोहा गरमकर लोहार कहलाया
कपडा धोकर धोबी कहलाया
कपडा बुनकर जुलाहा कहलाया
वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाया
कानो में क्या किसी का जन्म हुआ है जग में
इसलिए हे! कूडलसंगमदेव।
लिंगस्थल को जाननेवाला ही कुलज है। -428 [1]
यदि अस्पृश्य भक्त हो तो
उसके घर के कूत्ते को
पंचमहावाघ बजाकर सम्मान नहीं करुँगा क्या?
भले भले, जय जयकार करते हुए
कुलाधिक ब्राह्मण से ऊंचा मानता हूँ
आपके शरणों की महिमा आति महान है
हे कूडलसंगमदेव
आप पर विश्वास न करनेवाला अंत्यज है। -429 [1]
जहाँ लिंग है, वहाँ मैल कहां?
जहाँ जंगम है, वहाँ कुलभेद कहाँ?
जहाँ प्रसाद है, वहाँ जूठन कहाँ?
अपवित्र बात बोलने का सूतक ही पाप है,
निष्कलंक निजैक्य त्रिविध निर्णय
हे। कूडलसंगमदेव, आपके
शरणो के विना औरों के लिए नहीं। - 431 [1]
कर्मजात को मिटाकर गुरु पूण्यजात करने के बाद
शिवकुल का नहिं तो कोई अन्य कुल शरण के लिए है क्या?
’शिवधर्मकुले जात: पूर्वजन्म विवर्जित:।
उमा माता पिता रुद्र ईश्वरं कुलमेवच॥’
कूडलचेन्नसंगय्या,
शिवकुल के बिना
आपके शरणों के लिए कोई दूसरा कुल नहिं -738 [1]
ब्राह्मण भक्त होने पर भी सूतक-पातक छोड़ेगा नहीं,
क्षत्रिय भक्त होने पर भी क्रोध को छोड़ेगा नहीं
वैश्य भक्त होने पर भी धोखेबाजी छोड़ेगा नहीं
शूद्र भक्त होने पर भी अपना गुण को छोड़ेगा नहिं
ऐसे जाति ढोंगी को पसंद करेगा क्या कूडलचेन्नसंगमदेव? -848 [1]
सात वार और कुल अठारह कहते हैं
हम उसे नकारते हैं
रात एक वार, दिन एक वार,
भवि का एक कुल, भक्त का एक कुल,
हम उसे जानते हैं देखो, कूडलचॆन्नसंगमदेव। -900 [1]
अछुत, अछुत बाहर रहो ऐसा कहते हैं।
बह अछूत कैसा होता है?
अपनी आशुद्धि को खुद न समझकर
दूसरों में आशुद्धि ढूँढनेवाले
भ्रष्टों को क्या कहुँ?
महादानि कूडलचेन्नसंगमदेव। -941 [1]
कुलज होकर मैं क्या करुँगा?
कुल के पास भगवान नहीं मन के पास भगवान है।
किसी भी योनि में पैदा होने से क्या?
श्रेष्ठ कुलज वहिं है जिस पर तुम्हारी कृपा होगि
कपिलसिद्धमल्लिकार्जुन। -995 [1]
कुल का नाम लेकर लडनेवालो भाईयों, सुनो
कुल क्या डोहार का? कुल क्या मादार का?
कुल कय दूर्वास का? कुल क्या व्यास का?
कुल क्या वाल्मीकि का? कुल क्या कौण्डिन्य का?
कुल देखोगे तो उसमें कुछ सत्व नहीं
उनका चाल चलन देखोगे तो
ऐसे लोग तीन लोकों में नहीं मिलेंगे,
कपिलसिद्धमल्लिकार्जुन। -996 [1]
बस्ती के भीतर का खुला प्रदेश
बस्ती के भाहर का खुला प्रदेश
इसप्रकार क्या दो खुला प्रदेश अलग अलग हैं?
बस्ती के भीतर ब्राह्मण का खुला प्रदेश
बस्ती के भाहर अंत्यज का खुला प्रदेश
इसप्रकार क्या दो खुला प्रदेश अलग अलग हैं?
जहाँ भी देखो खुला प्रदेश एक ही है,
केवल भित्ति के कारण भीतर बाहर का भेद है।
जहाँ से भी पुकारूँ उत्तर बराबर देनेवाला ही बीडाडि है। - 1322 [1]
कुल मद को छोड़कर
आपको संतुष्ट करनेवाले शरणों को
सिर नवाऊँगा उन्हे कुलज मानकर।
आपसे प्रेम करनेवाले शरणों
के आगे जो सिर न नवाता, ऐसे अहंकारी का सिर
शुल के ऊपर का सिर है रामनाथ। -1739 [1]
कुल गोत्र जाति सूतक से
नष्ट हुए करोड़-करोड़ लोग
जन्म सूतक से नष्ट हुए करोड़ों लोग
वाणी सूतक से धोखा खाये
मनु मुनि समूह अगणित करोड़।
आत्म सूतक से अहंकारी होकर नष्ट हुए
हरिहर ब्रह्मादि सभी लोग।
’यदृष्टं तत्रष्टं’ को न जानकर
चौदहों लोक संचितागमी होकर
बार-बार पैदा होते रहे हैं।
इस प्रकार इस सूतक लोक में
लगे रहते इन पाषंण्डी पागलों को
परब्रह्मा कैसे प्राप्त होगा?
इस कारण नामरुप क्रिया में पड़नेवाला नहीं
वह अगम्य अगोचर अप्रमाण है।
बसवप्रिय विश्वकर्मट के कालिका विमल
राजेश्वर लिंग को छोड़ अन्य किसी के लिए नहीं। -1846 [1]
वेदशास्त्र पढ़ेगा तो ब्राह्मण है
वीरतापूर्ण कार्य से क्षत्रिय है
व्यापार में जो लगा है वह वैश्य है
कृषिकार्य करनेवाला शूद्र है
इसप्रकार जातिगोत्रों में श्रेष्ठ
नीच और श्रेष्ठ दो कुल है न कि
अठारह कुल है।
ब्रम्हा को जाननेवाला ब्राम्हाण
सर्व जीवहत कर्म करनेवाला चमार है।
इस उभय को जानो, भूलो मत।
छेनी, खड्ग, हथौड़े के आधीन न हो
जानो निजात्मराम, रामना। -1931 [1]
शुक्ल, शोणित, मज्जा, मांस, भूख, प्यास,
व्यसन, विषयादि में एक ही है।
कृषि व्यवसाय तरह-तरह के होते हैं।
लेकिन ज्ञान पाने की आत्मा सिर्फ एक है।
किसी भी कुल के क्यो न हो, ज्ञान पाने से ही
पर-तत्व की अनुभूति मिलेगी,
भूलने से मायामल संबंधी होगा।
इस प्रकार दोनों के समझो मत भूलो
छेनी, खड्ग, हथौड़े के आधीन न हो।
जान लो निजात्मराम रामना। - 1932 [1]
[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.