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18. चोर के "शरण” बनने का प्रसंग

चोर के "शरण” बनने का प्रसंग

एक दिन बसवेश्वर सोये हुए थे। पत्नी नीलगंगांबिका महामने के प्रसाद प्रकोष्ठ का कामकाज समाप्त करके अभी सोई हुई थी। शारीरिक परिश्रम के कारण उन्हें गहरी नींद आयी थी। इतने में एक चोर अंदर आकर निद्रित नीलांबिका के गहनों को खोलते हुए उसने उनके कर्णाभरण को भी उतारने के लिए जब हाथ लगाया तो उनकी नींद खुल गई । जलते दीप की रोशनी में भयंकर मुख को देखकर भयभीत हो गयी।

हाय, चोर, चोर" कहकर चिल्लाया । इतने में वह वहाँ से भागने लगा तो बसवेश्वर की भी नींद खुली।

“क्या हुआ नीला ? क्यों चिल्लाया ?"

'चोर आया था; मेरे कानों में हाथ लगाया"

इतने में महल के पहरेदार चोर को पकडकर लाये। उस चोर को देखकर बोलते है

विश्वास था तुम हो साथ मेरे सति
विश्वास था मेरा हाथ थामे बनी हो तुम सज्जन
हाय मेरे बन्धु के हाथ दुखे हैं
कर्णाभरण उतार इसे दे दो नीला
चोर के घर में चोर घुसे
वह अन्य नहीं है महा कूडलसंगमदेव ॥

नीला, मैंने समझा था कि तुम मेरी धर्म सहचारिणी, आदर्श सती हो। परंतु तुमने उस निष्ठा को नहीं निभाया । तुमने मेरे मुग्ध पिता का हाथ दुखाया। तुम उसको देखते ही बिना चिल्लाये खुद कर्णाभरण को उतारकर क्यों नहीं दे दिया ? उनकी ध्वनि में उद्विग्नता थी।

यह कैसी विपरीत बात है ? क्या चोर को गहनों को उतारकर देना है ? "नीलांबिकाने आश्चर्य से पूछा

"नीला, चोर कौन है ? चोरी करनेवाला नहीं, चोरी करा लेने के लिए छिपकर रखनेवाला ही चोर है। आवश्यकता से अधिक संग्रह करनेवाला क्या चोर नहीं ? मैं ही सचमुच चोर हूँ । मेरी व्यथा तुझे कैसे मालूम ? मुझे चोरी, वेश्याजीवन, शोषण, छल आदि से रहित समाज के निर्माण की अपेक्षा है। मैं व्यग्र हूँ कि यह अपेक्षा कब सफल होगी ? "भैया, "तुम इसलिए आये हो कि तुम्हें गरीबी की चिन्ता है; नहीं तो तुम्हारी पत्नी के पास आभूषण न होंगे। आर्य, इन गहनों को ले लो। अपनी पत्नी को पहनाकर खुश हो जाओ। यदि गरीबी हो तो इनको बेचकर अपनी गरीबी को दूर कर लो।" नीलांबिकाने जब एक-एक गहने को उतार कर दिया तो बसवेश्वरने उन गहनों को चोर को दिया। चोर को बहुत पश्चात्ताप हुआ। सिसक-सिसक रोने लगा। उनके चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि" पिता, मेरे अपराध को क्षमा कीजिए। इस कलंक को बच्चा समझकर पेट में रखिए । "

बसवेश्वर ने प्यार से ऊपर उठाया । " मेरा पुत्र ही नहीं, तुम नीलगंगाबिका के गुरु भी हो जिसे सरल पाठ सिखाया।"

फिर बसवेश्वर ने कहा - नीला, संग्रह करने से समाज में अतृप्ति, अंतर उत्पन्न होता है। मैं आज ही प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने लिए, अपनी पत्नी, अपने बच्चों के लिए कुछ भी संचय नहीं करूँगा। तत्पश्चात, नीलगंगांबिका बसवेश्वर के सभी आदर्शों के अनुरूप उनके सभी कार्यकलापों में सह भागिनी बनकर परिश्रम में तत्पर हुई।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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