3. बसव को बचपन में मिली शिक्षा
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बचपन में मिली शिक्षा
बचपन से ही बसवरस की राय तीखी रही है. वह शिक्षकों के प्रति सम्मान और ईश्वर के प्रति समर्पण दिखाते हुए पढ़ाई में सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। कोमल चेतना होने के बावजूद उनमें बसलासूर्य जैसी ही दृढ़ मानसिकता थी। उस समय के दौरान, ब्राह्मण लड़कों को विशेष शैक्षिक सुविधाओं तक पहुंच प्राप्त थी। इसके अलावा, यदि पुरमुखिया को मदीराज का पुत्र कहा जाता है, तो सम्मान के स्तर की केवल कल्पना ही की जा सकती है। साथ ही शिक्षकों ने बड़े उत्साह से अपना पाठ पढ़ाया।
व्याकरण, संगीत और साहित्य में भरत के श्लोक लिखने, पढ़ने और गणित के क्षेत्र में बहुत महत्व रखते हैं। उत्कृष्ट पुराणों में अनगिनत रहस्य हैं, जबकि वैदिक कलाएँ गहरी समझ प्रदान करती हैं। बसव को इन विषयों में दक्षता प्रदान की गई थी, और इन्हें याद करके ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
बसवरस ने इस पद्धति के माध्यम से शास्त्रों में दक्षता और ज्ञान प्राप्त किया। स्वतंत्र चर्चाओं में शामिल होने की क्षमता उनमें जन्म से ही निहित थी। बच्चा हर क्रिया और विचार पर सवाल उठाएगा, और विचार करेगा कि चीज़ें ऐसी क्यों हैं। वह अपनी चिंताओं में डूबा हुआ गंभीरता से बैठा रहता।
सिंह शिशुरपि निपतति मदमलिन कपोल भित्तिषु गजीपु ।
प्रकृतिरियं सत्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥
"सिंह बच्चा होने पर भी मस्त हाथी के गंडस्थल पर टूट पडता है। प्रतिभा के लिए आयु कारण नहीं केवल स्वभाव है" ऐसी उक्ति के अनुसार बसवरस बड़ों से आसाधारण प्रश्नों को पूछता रहा। शिक्षा के लिए केवल अग्रहार के लड़के ही आते; अन्य जाति के लड़कों को वहाँ न आते देखकर बालक को आश्चर्य होता था। बालक उनअन्य जाति के बालकों से कहते-"आओ, तुम सबको मैं सिखाऊँगा"
लेकिन वे बालक डरकर "मालिक ये सब हमारे लिए.।?" ऐसा कहकर भय से दौड़ पड़ते मानो स्वयं साँप पर पाँव धर दिया हो। उन बच्चों का यह व्यवहार बसवरस को गंभीर चिंता में डाल देता था।
एक दिन आंगन में बालू पर लिखते हुए बसवरस बैठा था। चमार केत जूतों को लाया। यह बसवरस का समवयाला था।
माजी, जूता सीकर लाया हूँ, पुकारा
" बसू... ...उनको पीछे के आंगन में उसे छोडने को कहो; बाद को गोबर के पानी का छिड़काव ले लेंगे। तू कहीं भी मत छूना, होशियार? " माँ बोली।
बालक का कुतूहल जाग उठा
' क्यों माँ मत छूना? "
छू लूँ तो क्या होगा...? "।
" अपवित्र हो जाओगे"
"ऐसा हो तो उनके सीये हुए जूतों को पहने तो अपवित्र क्यों नहीं होगा?" "
"अंटसंड मत बोल, चुप हो जा।"
" नहीं, छू लोगे तो भगवान गुस्सा होंगे…
मुझ जैसे दूसरे मनुष्यों को छू ले तो भगवान क्रोधित हो जायेंगे तो वह बहुत ही बुरा होगा। हाय, मैंने उनको अच्छा ही समझा था। "
"बसव... बस करो बातें ... चल-चल ..."
"क्यों माँ वे नीच? मुझ जैसे उसको भी कान, नाक, आँख, शरीर नहीं है क्या?"
"वे मांस खाते हैं, तुम्हें मालूम नहीं।"
' मांस खानेवाले सभी अपवित्र हो तो बिल्ली चूहों को खाती है न; उसको क्यों तुम छू लेती हो? उसे छू लूँ तो मुझे भी गालियाँ नहीं देती ...
" तुम्हारी गपशप बढ गयी, पढने चल …
मादलांबिकाने उसे थप्पड मारकर भेज तो दिया। पर बसवरस गंभीरता से, अंतर्मुखी बनकर चिन्ता करने लगा। छोटे से मस्तिष्क में अत्यंत तीक्ष्ण की तरंगे उमड़ने लगीं।
सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.
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