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5. रचनात्मक सोच

बसवा: विचार-शीलता

बसवेश्वर का सोच Cogitative Thinking of Basava

अप्रतिम बुद्धिमान बसवरस की विवेचना शक्ति आयु से भी अधिक आगे थी ।। अपने माता- पिता, सगे- बन्धु आस- पास के लोगों के विचार उनके आचार आदि से संदेह संशय के बवंडर उनके मन में उठते रहे। अपना विवेक जब न मानता तो आचरण के लिए वे दृढता से तैयार न होते थे। समाज में स्थित जाति, पद्धति, बहुदेवोपसना, क्षुद्र देवता की साधना, यज्ञ याग, प्राणि हत्या आदि के प्रति उनके मन में तिरस्कार ही नहीं प्रतिशोध की भावना जन्म लेती थी।

मादरस एक दिन घर में पूजा में लीन थे। थकेमांदे बगीचे से लौट आये बसवरसने पानी मांगा। मादलांबिकाने प्रतीक्षा करते बैठने को कहा। क्योंकि मादरस की पूजा समाप्त होने तक "शुचित्व” को मैला नहीं किया जा सकता। बसवरस दस मिनट के बाद आये। पिताजी एक- एक देवताओं की पूजा करते थे ।। विघ्नेश्वर, सरस्वती, शिव, विष्णु, पार्वती, लक्ष्मी इस तरह पूजा एक- एक की पूजा होती थी। दूसरी बार आकर पूछने पर उत्तर मिला कि दूसरे देवता की पूजा हो रही है। आध्यात्म साधन के मूल ध्यान, चिन्तन से भी ज्यादा यांत्रिक पठण चलता था ।। बसवेश्वर दस- दस मिनट के उपरांत आकर पानी मांग कर पीछे के प्रांगण में जाकर गड्ढा खोदता था। मादरस पूजागृह के सभी देवताओं की उपासना के बाद सूर्योपासना, ड्योढ़ी पूजा और बिल्व वृक्ष की अर्चना के लिए बाहर आये तो, प्रांगण के सामने पुत्र के खोदे गये छोटे- छोटे गड्ढा को देखते ही क्रोध से पूछा कि "बसव, यह कैसा खेल है ?? इस तरह घर के सामने गड्ढे क्यों खोद रखे हैं। पिताजी, प्यास से थका था। माँ से पूछा तो कहा कि “शुचित्व” मैला नहीं करना चाहिए। पूजा समाप्त हो जाय ।। शीघ्र पानी निकालने के लिए गड्ढे खोदता था ।" अरे, पगले इतनी जल्दी कैसे पानी आता है ?? एक ही जगह पर गहराई से खोदना चाहिए। बारह गड्ढे खोदने के बदले एक ही गड्ढा खोदते तो पानी आयेगा न ?? पिता खिलखिलाकर हँसने लगा ।

इसी तरह पिताजी, भगवान को प्रसन्न करने के लिए एक मन से, एक ही मंत्र बल से एक ही लक्ष्य वस्तु पर मन लगाना है न ?? उस भगवान की इतना समय, इस भगवान की इतना समय यांत्रिक रूप से पूजा करें तो क्या उस भगवान का अनुभव होता है जो आनंद और सफल ज्ञान का संगम है ?

पुत्र के उत्तर से मादरस दंग रह गये। तब बसवरस बोले

सुनो पिता सात भुवन के
पिता को भजे बिना
रति पिता ब्रह्म, सूर्य अग्नि के
भजन कर्म से भवनाश की हाय !
चिंता कर जीवन अपना
नाश करने में तुले तुम
मेरे पिता कैसे हो
मेरे तो शिव भक्त ही
हो गए माता-पिता ॥

चौदह लोकों के सृष्टिकर्ता, जगत्पिता का भजन न कर सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदियों की पूजा करके मर्त्यलोक में अपनी आत्मा को पुनः-पुनः ले आ रहे है न? मादरस उत्तर देने में असमर्थ होकर मौन हो गये। पुत्र के प्रश्न में के मंथन से प्रस्फुटित चिंतन की चिनगारियाँ थीं।

और एक बार विशेष समारंभ हुआ। एक याग मादरस के नेतृत्व में संपन्न हुआ था। आडंबर से चलनेवाले सभी कार्यों को बालक बसव वीक्षण कर रहे हैं। घी में भिगोये हुए मूल्यवान पीतांबरों, कई हीरे-जवाहरातों को अग्नि में आनंद से समर्पित करनेवालों को देखकर वे दुखी होकर पूछते हैं-

पिताजी, कितनी अमूल्य वस्तुओं की अग्नि में आहुति दे रहे हैं? तेल के बिना स्नान करनेवालों को; घी के बिना भोजन करनेवालों को, भूख से तड़पनेवालों को क्या ये सामग्रियाँ तृप्त नहीं कर सकतीं? "मादरसने लाल आँखों से पुत्र को देखकर डाँटा और फुसफुसाकर बोले कि" बस कर, कहीं भी जाओ, यही अपना यह राग, बंद कर, तेरी अंटसंड बातें। "

" जीवित लोगों को न देकर निर्जीव अग्नि को आहुति क्यों देना? बोलिए...

सचमुच मूर्ख है। अग्नि भगवान है। यहाँ की आहुति भगवान को समर्पित होगी। " मादरसने गुस्से से कहा।

मगर पिताजी "

अग्नि भगवान हो तो जब वह घर को छूकर जलाती है तब ऐसे मंत्रों को पठन करना चाहिए कि "भगवान को समर्पित हो जाय" इसको छोड़कर इस बुरी आगने बरबाद किया। ऐसी गालियाँ देते हुए घी, पीतांबर के बदले शौचालय का पानी, रास्ते की धूल को क्यों डालते हैं? (#1)

बसवा, आये दिन तुम्हारे बेसिर-पैर की बातें अधिक हो गयीं। तेरी बुद्धि, तेरी बातें गपशप और ढिठाई तुम ही तक रहे। मुँह बंद करके पडे रहो, सब के बीच में कुछ न पूछ ...

और एक बार:-

बहुत बड़ा यज्ञ चलने लगा। उस प्रदेश भर में प्रसिद्ध उस उत्सव में भाग लेने चले ।

अग्नि को दैव मान विप्र घर में हवन देते।
शोला बन जले तो गंदि पानी, धूल झोंकते।
बिललाते पुकारते कूडल संगम देव,
वन्दना को भूलकर खरीखोटी सुनाते देव॥

पांडित्य सब दृष्टियों से गौरवान्वित हैं। इस वैभव का अनुभव करने के लिए ही पुत्र को भी साथ ले आये हैं। किन्तु उनके अंतरंग में आतंक खौल रहा है कि कहीं कुछ पूछ न बैठे। समारंभ क्रम बद्धता से चलता रहा। बकरे को यज्ञपशु बनाकर बलि स्तंभ से बाँधकर उसका वध शुरु हुआ। मंत्र सहित वध्य उस बकरे की आँखों से पानी को बहते देखा हो। यह पानी बालक बसवेश्वर को चिंता में ही नहीं डाला बल्कि उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। उनके मित्र। आश्चर्य से पूछते हैं कि "तू कैसा धीरजवाला है? लड़की की तरह रोता है ..." हंसी उड़ाने लगे।

"हाय... वह हमारी तरह जीवित रहने की इच्छा रखनेवाला जानवर है न? उसको क्यों मारना?"

"भगवान की तृप्ति के लिए"

"झूठ झूठ, भगवान करुणामयी है; वह अपनी ही सृष्टि के जीव की बलि न मांगेगा। वह क्रूर नहीं है। "

"बली से बकरे का जीवन सार्थक बनता है। भगवान को अर्पित करने से जल्दी वह स्वर्ग पहुँचता है ...

"लेकिन, स्वर्ग पहुँचाने के लिए इतना असान मार्ग है तो बूढों की भी बलि दे सकते हैं। मुझ को ही बलि दें तो आसनी से भगवान के पास पहुँच सकता हूँ न? ..."

छोडो, इसको साथ कौन बोलेगा। चर्चा करते खड़े हो जायँ तो यज्ञ नहीं देख सकते। उसके दोस्त अपहास करके वहाँ से सरक गये। उस बकरे की पुकार बसवेश्वर के अंतर को विलोडित करके हृदय को निचोड़ती थी। वह व्यथा उनकी आँखों से पानी बनकर बहती थी। असहाय हो अपने को ही भगवान का प्रतिनिधि मानकर उसकी तरफ से आश्वासन देने के रूप में उन्होंने कहा

पूर्वजो की बात के अनुसार
तुम्हें हत्या करनेवालों के सामने बकरा रोवो रे!
वेद के पंडितों के सम्मुख रोवो रे,
शास्त्र सुननेवालों के सम्मुख रोवो रे,
तुम्हारे रोने पर खूब आड़े हाथों लेंगे।
हमारे, कुडलसंगमदेव ।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

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