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26. परिवर्तन

कल्याण नगर में परिवर्तन

कल्याण नगर के चमारों की एक बस्ती में हरलय्या की झोंपडी है। उसकी पत्नी कल्याणम्मा, पुत्र शीलवंत छोटा सा सुन्दर परिवार है हरलय्या का । आरंभ से ही उसमें आध्यात्मिकता में आसक्ति रही। भगवान की कृपा से अपने जीवन को पुनीत कर लेने की आकांक्षा रही। मगर उसके लिए ठीक अवसर नहीं रहा। उस पर समाज ने दिन भर परिश्रम करने का बोझ मात्र डाला है। उस तरह भावान की आकांक्षा रूपी पौधे से कभी-कभी उसमें उगनेवाला अंकुर किसी का प्रोत्साहन रूपी पानी के न मिलने से मुरझा जाता था । "तुम जैसे अछूत को भगवान की पूजा क्यों ? तुम परिश्रम करो, उच्च वर्गों की सेवा करके पुण्य कमाओ। इसके बाद उच्च वर्णों में जन्म ले सकते हो।” ऐसी तिरस्कार रूपी धूप में उसकी आशा झुलस जाती थी। इस तरह व्यथित जीवों में कंबली नागिदेव, मादार धूलय्या आदि अन्य अधिक व्यथित थे। उसी बीच में बसवेश्वर का आगमन कल्याण नगर में हुआ। अनुभव मंडप ने अपना कार्य भी आरंभ किया। तब धर्म प्रचारक संस्थाने चारों ओर कई सत्य बोधकों को भी प्रेषित किया। बहुरूपी चौडय्या, सचेत मुक्तिनाथय्या आदि
शरण निम्न लोगों की बस्ती में जाने लगे। वे विराम के समय में बस्ती के चबूतरों पर बैठकर शिक्षा (बोध) देते थे। पहले उच्चवर्गवालों के आगमन के समय में संप्रदाय के अनुसार अछूत डरकर रास्ते से अलग हो जाते थे। मगर ये शरण उनके घर के सामने खडे होकर प्रेम, वात्सल्य से बुलाने लगे तो वे धीरे धीरे उनके पास आये। ये शरण उन्हें प्रबोधित करते थे । हर एक मनुष्य में तीन विभाग रहते हैं - शरीर, मन, आत्मा । जीवन निर्वाह के लिए शरीर से परिश्रम करना चाहिए मगर यही एक लक्ष्य नहीं है। मनुष्य को खा-पीकर, बच्चों को प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं। ये तो जानवर भी करते हैं। मन को शास्त्राध्ययन, प्रवचन, शिक्षण आदि चाहिए। आत्म विकास के लिए पूजा-ध्यान चाहिए। इन सब का जीवन में समन्वय होना चाहिए। तुम्हें एक अलौकिक सुख पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। पिता बसवेश्वर बोलते हैं -

शिव चिंता, शिव ध्यान बिना मनुजी
गोबार के हजार कीडों के समान देवा ।।

"इसलिए वे कहते थे कि अपने जीवन में ध्यान के लिए अवसर दीजिए।"

"वह तो सत्य है पिता । मगर हम तो जन्म से अछूत हैं। हम कैसे भगवान की पूजा कर सकते हैं ?" एक दिन एक व्यक्तिने धैर्य धरकर प्रश्न किया ।

'ऐसा नहीं कहो भैया.... तुम भी सबके समान मनुष्य हो। अपने को उच्च कहनेवालों के दो सींग तो नहीं होते। निम्न कहलानेवालों को पूँछ नहीं होती। सब का जन्म गंदगी में ही होता है, न कि सिर में। तुम में आत्म विश्वास पैदा होना चाहिए।" पिता बोलते है कि " कूडलसंगम देव ... तुम पर जो विश्वास न करे तो वह अछूत है। यह पद जातिवाचक नहीं, गुणवाचक है।' उस मुग्ध का संदेह दूर नहीं हुआ, फिर पूछता है -

हम तो नीच काम करनेवाले हैं। मरे जानवरों को उठानेवाले हैं। हम जैसे
अपवित्र भगवान की पूजा कैसे कर सकते हैं ?"

भैया ..... दूसरों का मन जो दुखाता है, दूसरों को जो घाव पहुँचाता है वही अपवित्र है। तुमने तो किसी को शोषित नहीं किया, धोखा नहीं दिया। तुम मुग्ध हो । मृत प्राणियों को निकालकर नगर को स्वच्छ रखनेवाले कर्तव्य पारायण हो न कि नीच उच्चवर्ण कहलानेवाले वध करते हैं। उनको हिंसावादी कह सकते हैं। इसलिए तुम्हें योग्य अवसर प्राप्त है, आँखें खोलो, हम सब के उद्धारक गुरु बसवेश्वरजी कहते हैं-

प्राणि हत्या करनेवाला ही चमार,
अभक्ष्य खानेवाला ही मेहतर,
जाति कैसी, उनकी जाति कैसी ?
सकल जीवों की भलाई चाहनेवाले
कुडलसंगमदेव के शरण ही श्रेष्ठ जाति के हैं। / 175[1]

" मारनेवाला चमार है। मैला खानेवाला ही मेहतार है " इसे जातिवाचक में
कहना अपराध है। मारने वाला ही चमार है अर्थात् जो शरीर, वचन, मन के द्वारा किसी भी तरह अन्य को मारे तो वह चमार है। किसी भी इन्द्रियों से मैला खाये तो वह मेहतार है। इस तरह के लोग किसी भी जाति में हो सकते हैं "

'अगर ऐसा है तो, हम सब को धर्म संस्कार के लिए क्या अवसर है ? इसी जन्म में क्या हम मोक्ष पा सकते हैं ? क्या यह स्वप्न है ? ” भावुकता हरलय्याने प्रश्न किया। उसका उत्तर शरणने विनम्रता से दिया ।

महाशय, इसी जन्म में, अभी कूडलसंगम की पूजा का फल हथेली में है, गुण के लिए मात्सर्य नहीं; साधना के अनुरूप सिद्धि की प्राप्ति निश्चित है; इसमें संदेह क्यों ? पिता बोलते हैं -

थल एक ही अछतों की बस्ती और शिवालय का
जल एक ही शौच और आचमन का
कुल एक ही अपने आपको जाननेवाले की
फल एक ही षड्दर्शन मुक्ति का
दृष्टिकोण एक ही हे कुडलसंगमदेव
आपको पहचाननेवालों के लिए। / 263[1]

भगवान के अनुग्रह के लिए केवल भक्ति चाहिए हरलय्या का मुख आश्वासन से चमकने लगा। कृतार्थता की आभा मुख पर शोभित हई । “ तो मुझे मेरी धर्म पत्नी को दीक्षा देने की कृपा करेंगे क्या ?"

अवश्य" हरलय्या अपने परिवार समेत बसवधर्म में सम्मिलित हो गया। उसके साथ ही असंख्य लोग जाकर अनुभव मंडप के सदस्य बने और वहाँ की चर्चा में भाग लेने लगे। वहाँ सुराजित गुण वैशाल्य, भ्रातृत्व भावना और बसवेश्वर के विनयपूर्ण व्यक्तित्व ने उन्हें विमुग्ध कर दिया। इसको देखकर निम्नवर्ग के अन्य हजारों लोग अनुभव मंडप के अनुयायी बने ।

कुल से है वह भंगी
कर्म से नहीं गंदगी
गंदगी के ठौर ठिकाना
गहरे जाने वह शारण-हरलय्या
आकर कल्याण पुर में है बसा ॥

वे निष्ठा से कायक करते थे। बाकी समय को अर्चना समर्पण, भगवद् अनुभव के लिए रखकर कृतार्थ हो गये।

तनु मन धन घिसाकर घर का कायक किया
अनुभवी हुआ शिव मंडप का हरलय्या
मणिमाला हुआ शिवमत की हरलय्या ।।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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