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21. कम्बली नागिदेव का प्रसंग

कम्बली नागिदेव का प्रसंग

बसवेश्वर की जिम्मेदारी विस्तृत हुई। उन्होंने समाज में भौतिक प्रगति, नैतिक उन्नति, आत्मिक विकास को एक साथ सिद्ध करने के लिए विविध योजानाएँ तैयारी की । व्यक्ति में समाज में आदर्श मूल्यों को समाहित करने के लिए नैतिक प्रसार की अनेक योजनाओं को निरूपित किया। कभी-कभी नगर का पर्यटन करके लोगों का पर्यवेक्षण करते थे।

एक बार नगर संदर्शन करते हुए बसवेश्वरजी वरिष्ठ माहेश्वरों की बस्ती में (बसवेश्वरजी अछूत जातियों को अछूत न कहकर वरिष्ठ माहेश्वर कहते थे) घोडे पर सवार होकर आ रहे थे। कंबली नागिदेव नामक एक शरण के घर से घंटानाद सुनाई पडता था । धूपारति का धुआँ और सुगन्ध बाहर आ रही थी । सुमधुर वचन गायन दृढीकरण करता था कि पूजा संम्पन्न हो रही है । बसवेश्वर का हृदय भर आया। स्वच्छता, नैतिकता, धार्मिकता ने अछूत बस्तियों का आलिंगन किया था। समाज में शोषित अछूतों की उन्नति हो जाय तो बाकी सभी स्तरों के परिवर्तन स्वभाविक समझकर बसवेश्वर ने उन स्तरों के परिवर्तन के लिए प्रयत्न किये थे। उसमें सफल भी हुए। वचन गायन से उनका आनंद सीमा से बाहर हो गया और वे तुरंत घोडे से उतरकर कंबली नागिदेव के घर के अंदर गये ।

बसवेश्वर के अनिरीक्षित आगमन से नागिदेवने संभ्रान्त होकर, बाहर आकर स्वागत किया । बसवेश्वनेर संतोष से उसका आलिंगन किया और कहा कि "मेरा जीवन और क्रांति धन्य हो गई। नागिदेव, आज तुम्हारे घर का प्रसाद स्वीकार करना चाहता हूँ।"

“बसवेश्वरजी यह आप की कैसी अपेक्षा है ? क्या आपको मालूम नहीं, मैं जन्म से अछूत हूँ ?"

"हो सकता है नागिदेव। दीक्षा संस्कार से पूर्वजन्म मिटाकर पुनर्रजन्म प्राप्त होता है। जिस प्रकार लकडी अग्नि में जलकर उसका गुण विनष्ठ होकर सब कुछ भस्म रूप धारण करता है । उसी प्रकार दीक्षा संस्कार से जातियाँ मिटकर शरणत्व को प्राप्त होती हैं। आप भी ऐसे ही शरण हैं। शुद्ध सदाचार से सर्वांग लिंगत्व को जो प्राप्त करते हैं वे अपनी अस्पृष्यता से छूटकर शिवतत्व से अनुगृहीत होते हैं। दीक्षा संस्कार प्राप्त व्यक्तियों के साथ पंक्ति भोजन करना धर्म है।"

बसवेश्वरने पूजा के पश्चात् नागिदेव के घर में प्रसाद स्वीकार किया । बसवेश्वर के साथ जो नगर सचिव, दरबारी आये थे वे भयभीत होकर राजा के महल की ओर दौडे। बिज्जल के पास जाकर उन्होंने कहा "महाराज, बसवेश्वरने के घर में भोजन
अछूत किया। जाति भ्रष्ट, व्रतभ्रष्ट हुए। आप कुलभ्रष्ट होकर अब दरबार में आकर हम सबको कुल भ्रष्ट करेंगे। इसकी पूछताछ होनी चाहिए।"

बिज्जलने शीघ्रता से बसवेश्वर को आदेश भेजा। बसवेश्वर के आते ही विज्जलने पूछा -

बसवेश्वर, आपने ब्राह्मण होकर अछूत के घर में भोजन किया, क्या यह सत्य है ?

महाराज भोजन तो किया, यह सत्य है। मगर कंबली नागिदेव अछूत नहीं है। इष्टलिंग दीक्षा संस्कार से महात्मा शरण हुए हैं। मैं भी लिंग दीक्षा संस्कार से शरण बना हूँ। इस तरह हम दोनों समान संस्कार से संपन्न होने से हमारा यह भोजन अपराध नहीं है। वह धार्मिक कर्तव्य है जो सामाजिक एकता का सूत्र है ।

बसवेश्वरजी क्या यह अपराध नहीं है ?

नहीं महाराज। उन्हें दिन में अछूत नाम से पुकारकर ठुकराकर, दूर रखकर रात्रि के समय उन्हीं अछूतों की बस्ती में घूमनेवाला ढोंगी सम्रदायवाला मैं नहीं हूँ। जिनके कई शताब्दियों से कठोरता से देखकर पैरों तले कूडाकरकट बना लिया था। आज उनमें प्रतिभा, चैतन्य को देखकर संस्कार से उन्हें मैंने उच्च व्यक्ति बनने की ओर प्रेरित किया है। मैंने प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध किया कि अवसर मिलने पर प्रतिभा किस तरह फूल सकती है। आप ही परीक्षा कीजिए ।

तब कंबली नागिदेव के पास बुलावा गया । नागिदेव प्रसन्न मुख मुद्रा से वहाँ आया

प्रवेश करते ही बसवेश्वर तथा महाराज बिज्जल को नमस्कार करता है। दरबार में उपस्थित सभी संप्रदायवाले नागिदेव को गुस्से से देखते हैं। महाराज बिज्जल कंबली नागिदेव को आसन देकर, अत्यंत सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं। सत्य शुद्धकायक, नित्यार्चन, सात्विक जीवन, सम्यक विचारों से मुख पर नव तेज सुशोभित हो रहा है बिज्जल को संदेह होता है कि उच्चवर्णीय, अछूतों को पशुओं से भी हीन दृष्टि से क्यों देखते हैं ? नागिदेव की सात्विक प्रतिभा को देखकर मन छूकर नमस्कार करना चाहता है। किसी तरह की चर्चा के लिए जीभ नहीं चाहती। मगर अपने स्तर के अनुसार गंभीरता से बोलते हैं।

"सचिवोत्तमजी, अब नागिदेवजी आये हैं। महा अमात्य बसवेश्वरजी भी आये हैं। अपने संदेह को प्रस्तुत कीजिए।'

"अरे, अछूत, तेरा...." किसी दरबारी के बोलने के आरंभ में ही नागमय्याने उसे रोककर कहा

“अण्णाजी, भाई कहो तो स्वर्ग। अरे कहो तो नरक" ऐसा क्या महागुरु बसवेश्वरने नहीं कहा है ?

"हरिहर कवि इसी का चमत्कारपूर्ण वर्णन करते हैं कि नागिदेव के पैरों की उँगली काटने पर दूध निकला, जातिवादी, चुगलखोरों के पैर काटने पर वहाँ रक्त में कीडे बह निकले।"

नागदेवने आगे कहा- आप जैसे लोगों के मुँह से 'अरे' शब्द शोभा नहीं देता। हम अब अछूत नहीं। हमारे कपडे गंदे नहीं। बोलियाँ मलिन नहीं, अंतरंग कलुषित नहीं।"

बन्द करो अपना मुँह, हम जैसे उच्च लोगों को सबक सिखाने आया है। वाह, क्या इस मूर्ख को 'आर्य' 'प्रभु', आदि शब्दों से सम्बोधन करना है क्या ?

देखिए महाशयजी यदि बंद करके जीवन बिताने की इच्छा शिव की होती तो आपने जिनको नीच जाति का माना उसे बोलने की शक्ति ही उन्हें नहीं देनी चाहिए थी ।
क्या आप को प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता कि हमें मुँह है, बोलने का भी अधिकार है।

"शबास, अविवेकी भी वाग्वाद करने लग गये। समय का कैसा अनर्थ फेर है। तुम्हारे जैसे अछूतों के घर में अमात्य श्रेष्ठ बसवेश्वर ने जो भोजन किया, वह सत्य है क्या ? "

"शरण महोदय"

"थत् जाति, कुल गोत्र रहित वह गंदला शब्द हमारे लिए प्रयोग न करो, मालिक या यजमान कहो "

“क्षमा कीजिए, हमारा मालिक एक ही है; संसार का मालिक परमात्मा है। शेष सब उनके बच्चे हैं; और किसी को हम मालिक नहीं कहेंगे।"

"देखिए प्रभु, कैसी उद्दंडता । उच्चकुल का अंतर न जाननेवाले गधों को संस्कार देंगे तो क्या दुष्परिणाम होगा.....?”

महाप्रभु, उच्चता नहीं जाति से आती है बल्कि नीति से, आत्म-साधना से प्राप्त होती है । हमारे महागुरु हैं बसवप्रभु, जिन्होंने हमें धर्म संस्कार दिया। अब हम बसव के धर्मानुयायी हैं। उन्होंने अपने पुत्र समान हमारे घर में पूजा करके भोजन किया । यह सत्य है। यह हमारा सौभाग्य है; इसमें अपराध क्या है.....?"

"अरे, अरे, अपराध नहीं । हे, तू अछूत है, अत्यंत नीच। तेरी परछाई भी पड़े तो तीन बार हमें स्नान करना है। ऐसे व्यक्ति के घर में जन्म से ब्राह्मण क्या भोजन कर सकते हैं महाप्रभु ? क्या उनको भी धर्मबुद्धि नहीं चाहिए ? क्या इसको भी इतना विकेक नहीं चाहिए ? "

देखिए महानुभाव, हमारे घर में सत्य शुद्धता का आचारण है। स्नान, पूजा आदि किये बिना हम पानी तक नहीं पीते। मांस, मद्यपान आदि का स्पर्श तक नहीं करते । तीन बार (त्रिकाल) पूजा करने के बाद ही प्रसाद स्वीकार करते हैं। व्रत, नियमों के आचारण में किसी ब्राह्मण से कम नहीं। ऐसा हो तो हमारे घर की रसोई कैसे अपवित्र हो सकती है ?

बसवेश्वरजी आप का इस सम्बन्ध में अभिमत क्या है ?

" महाप्रभु, समाज को ऊँच-नीच के स्तरों में बाँटकर कुछ लोगों को पशु की तरह देखना क्रूरता है। दैवी सृष्टि का अपमान है। मैंने शूद्र, पंचम आदि को धर्म संस्कार दिया। सोच विचार करे तो 'आश्चर्य होगा कि इससे उनमें कितना परिवर्तन संभव हुआ ? उन्होंने कितनी प्रगति की है ? कई शताब्दियों से कुचले हुए लोगों के प्रति क्रोध की लहरें उठती हैं। अब पुरानी गल्तियों को सुधार ले तो सब का शुभ होगा। कंबली नागिदेव को देखिए, कैसा तेज है, कैसी नम्रता है बोलियों में, कैसी दैवी प्रतिभा है उसकी आँखों में। पुराने संप्रदायवाले इन्हें अछूत, नीच कहने के अलावा सहजता से देखे तो हम से किस दृष्टि से कम है ? बहुत से लोग विश्वास करते हैं कि इनकी जीभ साहित्य के लिए योग्य नहीं । 'मगर नागिमय्या की वाणी में सरस्वती नाचती है । इनके मुँह की बातों से ये उत्तम हैं। हमारे सहोद्योगियों की बातों से क्या ये असंस्कृत दिखाई नहीं पडते ? आप अपने विवेचन से तयकर लीजिए। नागिमय्या और हम समान धर्मवाले हैं । इनके घर की रसोई अत्यंत पवित्र है. शिव प्रसाद है "

बिज्जल अपने मन में साधु मानकर मंत्र मुग्ध हो गये। उन्होंने कहा- सत्य है बसवेश्वरजी । नागिदेव के मुँह से दूध की तरह मधुर वचन ही निकलते हैं। हमारे दरबारियों के मुँह से कीड़े-मकोडों की तरह कलुषित शब्द ही निकले। जैसे शरीर के अंतर के लोप- दोष, स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य को प्रकट करते हैं वैसे ही बातों की वैखरी (वैविद्यता) से किसी के व्यक्तित्व को माप सकते हैं। सचमुच नागिदेव अत्यंत उत्तम हैं। बिज्जल खुश होकर एक थाली में सोने के सिक्के, रेशम के कपडे और फल रखकर देने चले ।

महाराज, इसे हमारी उद्दंडता मत समझिए। कायक से उपार्जित का ही हम उपयोग करते हैं। इसलिए सोना नहीं चाहिए; दोपहर में विराम के समय में सिर्फ हाथों से निकाले धागों से बने कपड़ों को ही हम पहनते हैं; इसलिए पीतांबर नहीं चाहिए । राजाधिराज, आपका पुरस्कार स्वीकार नहीं कर सकता किन्तु आप के इन फलों को स्वीकार करता हूँ। कृपा कीजिए ।

बसवेश्वर, धन्य, धन्य हो । किस तरह के हीरे, मोती, जवाहरात की राशि है आप के भक्ति पंथ में। आप ऐसे महामहिमों को प्रत्यक्ष देखने का सौभाग्य मुझे आज मिला। " कल्याण नगर का नाम आप से अमर हो जायें। आप स्वयं ही महान नहीं बने बल्कि अन्यों को उसी स्तर तक ले जाने का आप का प्रयत्न अद्भुत है । नागिदेव, दरबार की पल्लकी में आप को ले जायेंगे। आप प्रस्थान करें। आप की परीक्षा जो हुई उसके लिए दुखी मत बनिए ।

यह परीक्षा नहीं महाप्रभु, यह आत्मीय बन्धुओं का संदर्शन है। इसकी हैसियत से प्रभु का सान्निध्य प्राप्त हुआ। परमात्मा आप को दीर्घायु प्रदान करें । उनकी वन्दना करके नागिदेव सेवकों के साथ निकले।

बसवेश्वर का हृदय भर आया। आनंद से चक्षु सजल हुए। बिज्जल की ओर देखकर बोले............

घर देखो निर्धन लगते हैं,
मगर मन देखो तो धनवान लगते हैं,
अंगना के स्पर्श पर भी जो शुद्ध है,
वह सर्वेद्रिय जित है।
संग्रह को मौका नहीं तत्काल जो है उतना ही।
कूडलसंग के शरण स्वतंत्र हैं और धीर भी हैं।
/ 313 [1]

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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