हरलय्या बसवधर्म का "संस्कार" अपनाकर शरण हुआ
हरलय्या बसवधर्म का "संस्कार" अपनाकर शरण हुआ। वह अत्यंत परिशुद्ध जीवन बिताने लगा । यों रहते एक दिन दुपहर में उसे "जय गुरु बसवेश, हरहर महादेव" की घोषणा सुनाई पडी । इसे सुनते ही उसके मन-शरीर पुलकित हो उठे। बसवेश्वर के महल के कार्य-कलापों को पूर्ण करके अपने महागृह में पूजा-प्रसाद स्वीकार करने जाने का समय वह था । किन्तु घोडे पर सवार होकर इस ओर क्यों आ रहे हैं ? उनके चारों ओर उनके प्रति श्रद्धालु जमा होकर जयघोष कर रहे हैं।
हरलय्या भी स्वयं अपनी भक्ति का “शरण” (अभिनंदन) समर्पित करने का संकल्प करके बाहर आये। वे भय-भक्ति से खडे होकर धर्म का संकेत जैसे सफेद घोडे पर आ रहे तेजस्वी मुख मंडल के बसवेश्वर को देख रहे हैं। उनका हृदय भर आता है। "इस महात्मा की दया से ही हम जैसे लोगों को इतने धैर्य से जीवन बिताना साध्य हुआ। धर्म दीक्षा प्राप्त करके पूजा, ध्यानादि करने में हम समर्थ हो सके।” उनका इतना बडा ऋण हम कैसे चुकायें ? इसी चिंता में डूबे हैं । इतने में बसवेश्वर का शिष्य संगम शीघ्रता से आकर कहता है कि "हरलय्या शरणजी, आज बसवेश्वरजी प्रसाद भोजन के लिए आप के घर पधार रहे हैं।” हरलय्या दिग्भ्रांत हुआ। “कल्याणी, शीलवंत सुनो ! आज बसवेश्वर प्रसाद-भोजन के लिए हमारे घर आ रहे हैं" कल्याणी-शीलवंत इस संतोष को मैं कैसे सहन करूँ ? हरलय्या सभ्रांत हुए।
वे बसवेश्वर की पाद पूजा करके स्वागत करते हैं। बसवेश्वर, पूजा के बाद कल्याणम्मा के हाथ से तैयार की गयी "रागी खीर" पीकर खुश हुए। प्रसाद स्वीकारने के पश्चात् चल पडे । जब बसवेश्वर निकले तब हरलय्याने अधिक संतोष से फूलकर कहा कि बसवेश्वरजी शारण (नमस्कार) हरलय्या भक्ति से प्रेरित होकर खड़ा है। उसे देखकर बसवेश्वर भी पुलकित हुए। वे जिस समाज की स्थापना करना चाहते थे उसकी रचना होने लगी है। इनका ऊँच-नीच का भेद मिटकर ये सब आत्मविश्वास से कदम बढा रहे हैं। अपने को कृतार्थ समझकर दोनों ने हाथ जोड़कर कहा कि “शरणु शरणार्थी, शिवशरण हरलय्या"। बसवेश्वर घोडे पर चढे । अपने से उच्चरित 'शारणु' के प्रति 'शरणु शरणार्थी' कहकर उन्होंने अधिक शारणों का अभिनंदन किया जिससे हरलय्या स्तंभीभूत हुआ। भावपरवश भी हुए और बुद्धि अस्थिर हुई। बसवेश्वर का अश्व आगे चला। हरलय्या चेतना शून्य होकर सोचता रहा कि "हे शिव" कैसा अपराध हुआ। हमें धर्म संस्कार, दैव संपद प्रदान करनेवाले महानुभाव बसवेश्वरने मुझे दो शरणों से संबोधित किया। मैं इस तरह 'शरण' के लिए ऋणी हो गया। मैं उनकी चरण धूलि में भी नहीं लोट पाया । इसी तरह सोचते हुए खड़ा है। बसवेश्वर को बिदाई देने आये कल्याणम्मा और शीलवंत हरलय्या की स्थिति को देखकर विस्मित होते हैं।
“शरण होकर क्या इस तरह चिन्ता करता है ? क्या चिंता मानसिक भ्रांति का लक्षण नहीं है ? ऐसा कल्याणम्माने प्रश्न किया।" "कल्याणी, मेरी यह चिन्ता किसी भोजन, पोषाक से सम्बन्धि नहीं है। यह पारमर्थिकता से सम्बन्धित है। बसवेश्वर का ऋण चुकाने में असमर्थ होते हुए भी 'शरण' का दूसरा वजन ढोना पडा न हमें। कल्याणम्मा भी आलोचना में मग्न हो गयी।"
“सत्य है, हमें इस महापुरुष से पुनर्जन्म मिला। बसवेश्वर ने निम्नवर्णों को धार्मिक समानता देने की कृतज्ञता एक तरफ की तो स्त्रियों को भी धार्मिक समानता देने की कृतज्ञता दूसरी तरफ की। इन दोनों दृष्टियों में उनके ऋण का भार न ढोना चाहिए। इसलिए हम एक काम करेंगे। मेरी बाई जांघ के चर्म और तुम्हारी दाई जांघ के चर्म का उपयोग करके सुन्दर खडाऊ बनाकर उन्हें समर्पण करेंगे।"
ओह, कैसी दिव्य आलेचना है कल्याणी । इस सलाह से मैं कृतार्थ हो गया । हरलय्याने उद्गार किया। वह स्नान पूजा करके अपने कार्य में लग गये। दोनों ने अपनी- अपनी जांघ के चर्म निकालकर एक सुन्दर जोडे खडाऊ बनाये ।
दूसरे दिन समर्पण भाव के संकेत स्वरूप उन खडाऊओं को बडी श्रद्धा-भक्ति से रेशम के कपडे में लपेटकर हरलय्या का परिवार महागृह की ओर निकला। वहाँ सौ से अधिक लोग उत्साह से आया-जाया करते थे। हरलय्या अपना छोटा सा पुरस्कार अंदर ले जाने में संकोच का अनुभव करके वहीं पर खड़ा रहा । बसवेश्वर को हरलय्या का आना हृदगत होते ही बाहर आकर उन्होंने उससे गाढा आलिंगन किया। हरलय्या दिग्भ्रांत हुआ। तब बसवेश्वर हंसकर विषाद से बोलते हैं कि हरलय्या मेरे तत्वों का अंतरंग क्या तुम्हें मालूम नहीं ? कोई दासी पुत्र हो, या वेश्या पुत्र हो, शिव दीक्षा लेने के बाद उसे शिव भक्त (शरण) समझना चाहिए। उच्च-नीच केवल भ्रम है। सभी भगवान की दृष्टि में समान है। सबकी आँखों में, अंतरंग में उस भगवान का चैतन्य ही चमकता है। "हम निम्नकुल के हैं" - इस किल्विष को निकाल फेंककर आत्म विश्वास से आप सब भर जायँ तो वही मेरा परम भाग्य है ; आइए....... कहकर आदर के साथ उन सब को अंदर ले गये । हरलय्या से समर्पित पादरक्षाओं की सुन्दर कला को देखकर चकित हुए। “गुरु बसव, आप ही हमारे माता-पिता, बन्धु-बांधव हैं। आप जैसे महान को देने योग्य पुरस्कार मेरे पास नहीं है। मगर मेरी छोठी सी भेंट, इन पादरक्षाओं को बडा मानकर स्वीकार कीजिए। ठुकराइए मत" । हरलय्याने दीनता से प्रार्थना की। "हरलय्याजी, भक्ति से दिया गया तृण भी मेरे लिए स्वर्ण पर्वत ही है। ऐसी प्रिय वस्तुओं को क्या ठुकराया जा सकता है ? वह सब ठीक है। इन खडाऊओं के लिए कौन सा चर्मं उपयोग किया है ? बसवेश्वरने बडी सूक्ष्मता से अवलोकन करके पूछा।” “महानुभाव" सत्य को जानकर मत ठुकराइए। मेरी पत्नी की बाई जांघ और मेरी दाई जांघ के चर्म से ये जूते बनाये गये है ..... । ये बातें सुनते ही बसवेश्वर स्तंभीभूत हुए । “शिव, शिव ! कैसा भयंकर त्याग ?” इस तरह के काम के लिए क्यों साहस किया ? ऐसा कहकर मौन और भावपरवश होकर उन जूतों को सिर पर धारण किया।
“आर्य, आप जैसे शरणों के जूतों की समानता में पृथ्वी भी न तौली जाती। पूर्ण जगत को तौलने पर भी इसका मूल्य निश्चय नहीं किया जा सकता।" बसवने उद्गार किया।
हरलय्या, ये सर्वार्पण के चिन्हे हैं, त्याग और साहस का संगम है। आप जैसे पुनीत शरणों की देह के अंशों का अंग इन में है। इनको पहनने का साहस करना मुझे ही क्यों किसी को भी ठीक नहीं। ये विशेष प्रतीक त्याग के रूप में स्थिर रहे..." ऐसा कहकर उन्हें वापस दिया । हरलय्या को सांत्वाना देकर प्रसाद भोजन कराने के बाद उन्होंने बिदा किया ।
हरलय्या का परिवार दिग्रभ्रांत होकर कुछ करने में असमर्थ होकर मौन घर की ओर चला। ऐसे ही समय बसवेश्वर के सचिव मंडल के सदस्य मधुवरस उसी रास्ते से आ रहे थे । उन्होंने भावोन्माद में तन्मय होकर जाते हुए हरलय्या को देखा । “हे.... हरला कहाँ जा रहा है ? तू तो शारण होने के घमंड से राजमार्ग में ही घूम रहा है। उच्च वर्णियों की छाया देखते ही अलग होनेवाला तू अब निर्भय होकर घूम रहा है न ?” उन्होंने ललकारा
"भगवान से प्राप्त पृथ्वी, तथा उन्हीं से प्राप्त जीवन को धारण किए घूमना क्या अपराध है ?"
अपराध नहीं, अपराध कुछ नहीं, यह सब बसवेश्वरजी के प्रशिक्षण का दुष्परिणाम है। इस तरह असहनीय बातें बोलते हुए मधुवरसने हरलय्या के सिर पर की गांठ को देखा। वह बसवेश्वर के महागृह से राजमार्ग पर आ रहे थे। उसको दिखाने के लिए हरलय्या से पूछा तो उसने इनकार किया। मधुवरसने अंग रक्षकों की सहायता से उसे छीनकर देखा और उसका दाम पूछा। हरलय्याने कहा कि यह बेचने की वस्तु नहीं है; फिर भी बिना पूछे अहंकार से उसे पहन लिया। तुरन्त उसके शरीर में अग्निपीडा व्याप्त हो गयी प्रज्ञाहीन होकर वे गिर पडे । अंगरक्षक उन्हें घर ले गये । हरलय्या खिन्न होकर उन जूतों को लिए अपने घर पहूँचे ।
मधुवरस का स्वास्थ्य बिगडता गया। इस घटना के बारे में ज्ञात होते ही बसवेश्वर ने गंभीरता से आलोचन की। "ऐसा सोचकर कहला भेजा। हरलय्याने जिस काली नांद के पानी में जूतों को भिगोकर सीया है उसी पानी को लाकर उससे स्नान कराना है। यह सलाह मधुवरस को अच्छी नहीं लगी। यद्यपि बेटी लावण्यवतीने इसे सुनकर पिता को मालूम हुए बिना पानी लाने का उपाय किया। सेविका लक्कुमायी रोज त्रिपुरांतक तालाब से पानी लाने जाया करती थी। उस दिन उसे न भेजकर स्वयं पानी ले आने की बात कहकर सीधा हरलय्या के घर पहुँची। अधिक व्यथा से उनसे पानी मांगा। पहले तो हरलय्याने यह दुष्कृत्य समझकर इनकार किया। वह बसवेश्वर का संकल्प समझकर कालीनांद का पानी लाकर घडे में डाला। उस पानी को लाकर लावण्यवती ने मधुवरस के स्नान के पानी से मिला दिया। उस दिन मधुवरस को स्नान करके पूजागृह में प्रवेश करते ही - अपने शरीर में घटित परिवर्तन को देखकर आश्चर्य हुआ। हरलय्या की आध्यात्मिक शक्ति को जानकर उसके प्रति सम्मान से सिर हिलाया और अपने बर्ताव से शर्मिन्दा होकर पानी-पानी हो गया। दूसरे अपनी पुत्री के साथ हरलय्या के घर जाकर उन्होंने अपने पश्चत्ताप को व्यक्त किया। क्षमा मांगने के साथ जब स्वर्णमुद्राएँ मोति, जवाहरात देने गया तब हरलय्याने साफ ठुकराया और कहा कि "कायक के बिना जो आता है मैं उसे स्वीकार नहीं करता।"
फिर, मधुवरसने अत्यंत दीनता से अपना दूसरा प्रस्ताव स्वीकारने की प्रार्थना की। अपनी एक मात्र पुत्री लावण्यवती को हरलय्या के पुत्र शीलवंत को देने की अपेक्षा व्यक्त की तो हरलय्या घबरा गया। यह वैवाहिक सम्बन्ध अत्यंत वैशिष्ट्य पूर्ण ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष में क्रांतिकारी विवाह माना जाएगा। ब्राह्मणोत्तम मधुवरस वर्णाश्रम समाज व्यवस्था में उच्चवर्ग का था। अस्पृष्य हरलय्या समाज व्यवस्था के निम्नवर्ग का था। इन दोनों के बीच का विवाह सम्बन्ध युगों से चले आये संप्रदाय को डगमगा सकता था। इसलिए हरलय्या पीछे हट गया। मगर मधुवरसने शरण-धर्मानुयायी होकर जब इस प्रस्ताव को अनुभव मंडप के सामने रखा तब शरणों ने एक मत से स्वीकृति दी। उनकी स्वीकृति के मिलने के पश्चात् हरलय्याने भी अंगीकार किया। विवाह सांगोपांग संपन्न हुआ ।
सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.
[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.
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