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25. कल्याण की क्रांति

कल्याण की क्रांति

बसवेश्वरने क्रांतिसहित मूल्यों से अलौकिक क्रांति की। उन्होंने अपने जीवन काल में जितनी अपूर्व कीर्ति पायी उतनी और किसीने नहीं । सुन्दर मंदिर पर कलश धारण करने की तरह एक क्रांतिकारी घटना उनके जीवन के अंतिम समय में घटित हुई। भारतीय इतिहास में यह एक दृढ क्रांतिकारी कदम था।

संसार के इतिहास में कई क्रांतियाँ समय-समय पर हुई हैं। साधारणत: समाज में सम्प्रदाय, विश्वास, आचार विचार आदि रूढियाँ आरंभ हो जायँ तो समाज उनका विरोध करने लगता है और उनको बदलकर सात्विक तत्वों की स्थापना के लिए प्रयत्न होता है। इस तरह रूढियों से उत्पन्न आचार-विचारों के समूह को बदलकर अमूल परिवर्तन लाना ही क्रांति कह सकते हैं। ये क्रांतियाँ कई बार सिर्फ सामाजिक, आर्थिक, राजकीय मूल्यों के उद्देश्य के लिए हो सकती हैं अथवा जीवन के सर्वतोमुख विकास के लिए भी हो सकती हैं। बसवेश्वरजी की बारहवीं शताब्दी की यह क्रांति सामाजिक, धार्मिक, नैतिक, राजकीय आर्थिक थी। उसने वैचारिक क्षेत्र में अमूल्य परिवर्तन किया। जनता के दृष्टिकोण को बदलने में तीक्ष्ण थी। आकार में छोटी होने पर भी उसकी कीर्ति में बड़ी वैशिष्ट्रयता के साथ संसार को मार्गदर्शन करने का दृष्टिकोण संयुत् था।

बारहवीं शताब्दी की यह क्रांति स्त्री, स्वर्ण के लिए घठित नहीं हुई। समाज में स्थित वर्गभेद, वर्णभेद आदि विषाक्तता को समाप्त करके समस्त मानव जाति के समान तत्वों का प्रत्यक्ष प्रसार के लिए हुई। इसमें कईयों ने अपने प्राणों का बलिदान किया । संसार में कोई नया तत्व आचरण में लाना हो तो कईयों के त्याग, बलिदानों की नींव पर ही यह साध्य होता है। एक बार एक जिज्ञासु, इस संसार के अन्यान्य, असत्य से अन्य मनस्क होकर सत्य की खोज में निकला। वह निर्जन प्रकृति माता के अंत:पुर सदृश वन में आया । वहाँ सत्यपुरुष अपने को कोई पूछनेवाला न होने से खिन्न होकर बैठा था । तब जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि “हे, सत्य पुरुष तुम्हारे मानव समाज से दूर आ जाने से वहाँ अन्याय, असत्य आदि नग्न नृत्य कर रहे हैं। तुम वहाँ क्यों नहीं आते ? आकर क्यों उद्धार नहीं करते ? " सत्यपुरुष ने उत्तर दिया कि जिज्ञासु..... मैं तो मानव समाज छोड़कर नहीं आया। उसने ही मुझे वहाँ से भगाया है। मैं तो अभी आने के लिए तैयार हूँ मगर मेरे लिए तुम बलिदान करने को तैयार हो ? मेरी स्थापना के लिए तन, मन, धन त्यागने के लिए क्या तैयार हो ? यह तो सचमुच सत्य विचार है। जब तक त्याग, बलिदान के लिए लोगों का मन तैयार न होगा तब तक आदर्श तत्व समाज में स्थापित न होंगे।

इसलिए इसी क्रांति का एक नेता श्री चन्नबसवण्णाने कहा है-

भूमि में बीज पड़े तो नष्ट हुआ ऐसा मत कहो,
आगे के फल में उसे ढूँढ लो।
गरमाकर गलाया सोना नष्ट हुआ ऐसा मत कहो
आगे के रंग में उसे ढूँढ लो।
जलायी दीप्ति नष्ट हुई ऐसा मत कहो।
आगे अग्नि में उसे ढूँढ लो।
लिंग के अंतर्गत प्राण, प्राण के अंतर्गत लिंग
इसलिए, कूडलचेन्नसंग के शरणों के
पाद प्रतिबिंब में ढूँढ लो
संगमबसवण्णा ।
/ 860 [1]

एक बीज के स्वयं को खोकर अपने सत्व को समर्पित करने पर ही दूसरे वृक्ष को जीवन प्राप्त होता है। उस पौधे से अच्छे फल मिलेंगे। खनिज सोना अपने को तपाने के पश्चात्, दर्द को सहने के पश्चात् ही खरा सोना होगा, जिससे विविध आभूषण होंगे । बातियों के जलने पर ही हमें रोशनी मिलेगी। इसी तरह बारहवीं शताब्दी की क्रांति में पांच बात्तियों ने अपने आप को जला दिया। उन्होंने अपने प्राण त्यागने के द्वारा हम में तत्वों के जीव सत्व को भर दिया। ये अमर बत्तियाँ हैं - पूज्य शरण चमार हरलय्या, उसका पुत्र शीलवंतय्या, मंत्रीवर्य ब्राह्मण मधुवरस, हरलय्या की पुत्री कल्याणम्मा और मधुवरस की पुत्री लावण्यवती ।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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