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17. कल्याण में आगमन

कल्याण में आगमन

बिज्जल राजा बलिष्ठ होकर चालुक्य तैलप को बलहीन करके गृहबन्धन में (ईसवीं 1155 से) रखकर अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए कल्याण नगर को अपने स्वाधिकार को स्थानांतरित करने में लगा। उनके विश्वासी लोग भी उसके साथ कल्याण आने लगे। इसी पृष्ठभूमि में विक्रमनाम संवत्सर (ईसवीं 1160 ) श्रावण सोमवार को सुप्रभात में प्रधानामात्य बलदेवरस धर्मपिता बसवेश्वर और उनके परिवार के अन्य लोग भी कल्याण नगर में पधारे।

बिज्जल ने पहली बार जब चालुक्यों के महल के पूजागृह में प्रवेश किया तब विशेष मंडप में संपूज्य शांतेश्वर लिंग की अर्चना करते समय, उस दिन एक विशेष वस्तु उनको दिखाई पड़ी। आरती के प्रकाश में चमकती गेन्डुरी (लपेटी हुई चीज) को उठाकर खोला। वह एक अत्यंत पतला स्वर्णपत्र था उस सोने के पत्रपर विचित्र लिपियाँ थीं। जब राजा को उसे पढना असाध्य लगा तब उसने तुरंत नगर के विद्वानों को बुला भेजा। उस सुवर्ण पत्र को पहले पढने के लिए बलदेवरस, कोण्डी मंचण्णा, नारण कमितरु, पेद्दरस, विष्णुभट्ट सौरी पेद्दी आदि अनेक विद्वानों ने प्रयत्न किया तो भी संभव नहीं हो सका।

“बसवेश्वर, हम से छोटे होने पर भी प्रतिभावान है। उसको भी पढने क्यों नहीं देना चाहिए ? बलदेवरस प्रस्ताव किया, पेद्दरसने अनुमोदन किया ।”

"अहा, यह कैसी कच्ची सलाह। हम जैसे बुजुर्गों ने भी नहीं समझा तो उसे कैसे मालूम होती है जिसकी मूँछ अभी तक पकी नहीं है....? कोण्ड मंचण्णाने टीका की। "

"कोई भी हो, पढे तो बस, देश का हित होगा तो क्यों न प्रयत्न न करें ? ऐसा कहकर लिपिक कार्यालय में अपने कर्तव्य का निर्वहण करते हुए बैठे बसवेश्वर को बुला भेजा। "

" जब बसवेश्वर आये तब उसको पूरा विवरण कह सुनाया"

“बसवेश्वर, आप भी प्रयत्न कीजिए...... "

" प्रभु की दया कहकर हाथ में लिया, गेन्डुरी को खोलने के पहले मन में ध्यान किया..... "

मेरा वाम-क्षेम आपका है जी।
मेरी हानी-वृद्धि आपकी है जी
मेरा सम्मान-अपमान आपका है जी
लता को फल क्या कभी बोझ होता है?
हे। कुडलसंगमदेव। / 97 [1]

स्वर्ण पत्र की गेन्डुरी खोली ।

“महाराज, यह दर्पण लिपि है, प्राचीन कन्नड़ में है। दर्पण की सहायता से इसे पढना चाहिए।" राजा का इशारा पाकर सेवक दर्पण ले आया । बसवेश्वर तब तक उस पन्ने पर आँखें फिराते रहे। दर्पण की सहायता से पढकर बोले।

"प्रभु, अत्यंत आनंद का विचार है .....।” बिज्जल आश्चर्यान्वित हुए, सभा जागृत हुई ।

“चालुक्य साम्राज्य रत्नाकर त्रिभुवन मल्ल पेर्मडी विक्रमादित्य इस सिंहासन के नीचे अपने स्वर्णयुग की बचत सडसठ करोड सोना छोड गये हैं........... "

"वाह, वाह.... बिज्जल ने आश्चर्य से उद्गार किया।"

"प्रभु, यह असत्य है, सिंहासन को पलटकर आप के अधिकार को दोष लगाने का कुतंत्र है बसवेश्वर का " कोण्डी मंचण्णाने विरोध किया

प्रभु, असत्य हो तो सिरच्छेद दंड हो; सत्य हो तो देश को संपत्ति मिलेगी" बसवेश्वर ने स्पष्ट रूप से कहा। बिज्जल उनकी सलाह के अनुसार निश्चित स्थल पर खुदवाने से सडसठ करोड का सोना प्राप्त हुआ। बिज्जल के आनंद की सीमा न रही।

यह रत्नहार स्वीकार कीजिए, बसवेश्वर । आप की बुद्धिमत्ता के लिए यह पुरस्कार. "I

क्षमा कीजिए प्रभु, मैंने तो मामूली कर्तव्य को निभाया है, उसके लिए क्या पुरस्कार ? आप से तो वेतन लता हूँ न ?”

"ऐसा हो तो आपने जो धन निकालकर दिया उसमें से थोडा भाग ले लीजिए ।"

" ले सकता था किन्तु लेने के लिए मुझे, देने के लिए आप को अधिकार ही नहीं है न"

"आर्थात् ....इसका उपार्जन किया है विक्रमादित्य प्रभुने। इसके असली मालिक हैं प्रजा । उन्हीं के हित मात्र के लिए उसका उपयोग कर सकते हैं, न कि दूसरों के लिए । सामूहिक शिक्षा के लिए व्यवस्था करनी चाहिए। शिक्षा और सांस्कृतिक जीवन केवल कुछ ही वर्गों की संपत्ति हो गया है। उसे सब को प्राप्त कराना चाहिए ।"

"बसवेश्वर ऐसा ही हो, आप को ही वह जिम्मेदारी सौंपता हूँ। मंडली का मुखिया बनकर योजनाओं को तैयार कर लीजिए। अपार अनुभवी मंत्री सिद्दरस, जो आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर परिश्रमं करते रहे थे, उनका देहांत हुए पर्याप्त समय बीत चुका है। भंडार के प्रधान सचिव का स्थान रिक्त हो गया है । बुद्धिमान, ईमान्दारी, प्रामाणिक, तत्वनिष्ठ व्यक्ति की उसमें नियुक्ति होनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति हैं बसवेश्वरजी । उन्हींको वह वित्त सचिव स्थान दे देंगे।” बिज्जल का आदेश पाकर गुणी लोग हर्षित हुए, दुश्मन लोग जलने लगे। बसवेश्वर लेखाकार बनकर दरबार गये। जब वे राज लांछन और आप्त दरबारियों के साथ वित्त मंत्री होकर लौटे, तब दीदी नागलांबिका और पत्नी नीलगंगा ने विशेष स्वागत का इंतजाम किया ।

नागलांबिका ने आरती से स्वागत करके कहा कि "बसवेश्वर, तुम कितने प्रतिभावान हो, मुझे तुम पर अभिमान है।"

"दीदी, यह मेरी प्रतिभा का द्योतक नहीं, संगमनाथ की करुणा का फल है। उसकी दया के बिना ऊपर उठना क्या संभव है ?"

शिव जब देगा तो संपदा आयेगी पीछे
बाढ आये तो भरेगा तालब जैसे
राज परिवार की हुई कृपा
अलभ्य वस्तु होती लभ्य
परम प्रभु को भूले तो
छाये आँगन का पत्थर उठ जाय जैसे ॥

उन्होंने विनय से शरणागत भाव से भरकर कहा ।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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