इष्टलिंग के निर्मातृ गुरुबसव
संगमनाथ ने स्वप्न में जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार बसवेश्वर प्रात: काल के पहले ही स्नान करके शुभ्र वस्त्रों को पहनकर मंदिर में आकर बैठे। बुद्ध भगवान जिस प्रकार बोध गया में वट वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न हो बैठे उसी प्रकार बसवेश्वर संगमनाथ के सम्मुख अंतर्मुख होकर आसीन हुए ।
प्रभु आपको खोज रहा हूँ
आप ही की खोज में लगा हूँ।
निवेदन करते समय पनः नामेश्व
कीट सा ध्यान में लीन हूँ
भ्रमर की भांति मुझ पर कृपा कीजिए
मेरे समस्त अपराधों को क्षमा कीजिए ।
ज्ञान से जानकर पंचविषयों को दर करके
अंतरंग में सन्निहित होकर, बहिरंग में निश्चित हूँ मैं
स्वाती बूंद को जैसा सीपी चाहती है
वैसा ही गुरु कारुण्य के लिये चाहता है मेरा मन हे कूडलसंगमदेव ।
परिचय ज्ञान पाये, मैं हुआ स्थिर
विषय का स्पर्श रहा नहीं कोई
अंतरंग में सन्निहित हुए
हुआ मैं बहिरंग से निश्चिंत
स्वाति बूँद को चाहती सीप सा
मैं रहा चाहता गुरु कारुण्य
हे कूडलसंगमदेव ॥
बसवेश्वर ज्ञान प्रकाश बनकर अपनी इन्द्रियों को किसी विषय से टकराने या स्पर्श करने का अवसर न देते हुए अंतर्मुखी होकर, हृदय में मंत्रध्यान करते हुए, बाह्य जगत में स्थिर योगमुद्र में बैठे हैं। जैसे समुद्र में तैरते हुए सीप स्वाति बर्षा की बूँद के लिए तडपता है वैसे ही परमात्मा रूपी महागुरु लोकगुरु के अनुग्रह के लिए आतुर हैं। उसका मन धीरे-धीरे ऊपर-ऊपर उठकर भूम में परिणत हो रहा है। दैवीशक्ति को नीचे लाने के साहस कार्य में तत्पर हैं ।
तब अचानक प्रकाश दिखाई पडा । गोलाकार वह प्रकाश आकार को धारण कर ध्यानासक्त बसवेश्वर के सिर पर अपने दोनों हाथों को रखने से एक अखंडशक्ति उनके शरीर में अवतीर्ण होने लगी। वह प्रकाश उनके सर्वांगों में प्रविष्ठ होकर उनको पुलकित
कर रहा था।
इसी संदर्भ में एक महत्तर घटना घटी। "भगवान निराकार है, उसकी पूजा कैसे की जाय ? भक्ति को कैसे व्यक्त करना ? मनुष्य में तीन करण हैं -तन, वाकू और मन। मंत्रों के द्वारा मन से ध्यान कर सकते हैं। वाक् के द्वारा बोलियों से प्रार्थना कर सकते हैं। हाथों से अर्चना करने के लिए एक वस्तु को तो रहना चाहिए। वह यदि पौराणिक देवता हो, पौधा हो, जानवर हो, महात्माओं का आकार हो तो निर्गुणत्व का भंग होगा । क्योंकि भगवान निकराकार है। निराकार, निरवय भगावान को साकार बनाकर अर्चना के लिए योग्य कैसे किया जाय ? " ये प्रश्न कई सालों से उनके सिर में स्थित थे। जब एक दिन गहरी चिंता में डूबकर विशाल पृथ्वी - अंबर का वीक्षण करते रहे तब उनके मन में एक विचार कौन्ध गया ।
कार्य के द्वारा कर्ता का अस्तित्व व्यक्तित्व ज्ञात होता है । कर्ता का कार्य ही यह संसार है। यह गोलाकार है। गोलाकार अनादि अनंत तत्वों की शून्यता परिपूर्णता का चिन्ह है । गोलाकार में आदि-अनंत रूपी भगवान का चित्रण कैसे किया जाय ? भगवान की कल्पना करते समय स्त्री-पुरुष का भेद वहाँ नहीं है, किसी ब्रह्म, विष्णु, महेश्वर के आकारों की कल्पना भी न होगी केवल एक अनंत की कल्पना आयेगी । दृष्टियोग के अभ्यास के लिए एकटक देखकर उसका रंग काला किया जाये । करतल में स्थित रूप में बैठने के लिए तल को पूर्ण गोलाकार न करके समतल करे तो ठीक होगा। हृदय में अंगूठे के परिमाण में स्थित भगवान के परिमाण की तरह उसका गात्र हो । आकस्मिक रूप से उदित कल्पना बसव को भव्य अनुभूत हुई।
जल से अभिसिंचित कर, धूपदीप, नैवेद्य आदि से अष्ट विधार्चन करने में यह सहायक होता है। सीधी दृष्टि से त्राटक योगाभ्यास करने में साधन होता है । इसके अतिरिक्त कोई पुरुष हो या यदि स्त्री, जाति से कोई ब्राह्मण हो या भंगी, पूजा करना चाहता है उसे उन्हें दे सकते हैं। जो इस धारण करते है उन्हें जाति, वर्ण, वर्ग का भेद नहीं करना चाहिए क्योकि एक ही प्रतीक के नीचे भेदों को भूलकर एक होने में सहायक होता है । भगवान की पूजा करना, धन खर्च करना, पूजारियों की हिंसा आदि से बच सकते हैं । जहाँ तक मन चाहता है वहाँ तक पूजारी के ऋण के बिना पूजा करने में साध्य होता है । इसको शरीर पर धारण करके कहीं भी ले जा सकते हैं। यह कैसी सुन्दर-मधुर कल्पना है। इस कल्पना के साथ उनका उत्साह पंखे खोलकर उडा। परंतु इस नये आचरण का आरंभ कैसे करें ? पाशुपति शैव मतानुयायी गुरुजी मंदिर के लिंग की पूजा करने के संप्रदायवाले हैं। करतल पर लिंग को रखना क्या मान सकते हैं ? यह उद्दंडता समझ कर यदि इनकार करें तो ?
बसवेश्वर ने अपनी कल्पनाओं को रूप देकर इष्टलिंग की रचना करके रहस्य में छुपाकर रखा था। गुरु के सामने खोलकर रखने का उसमें साहस न था ।
अब गुरुकुल छोडने और स्वतंत्र कार्यारंभ करने का समय आया था। अपने भविष्य को अंतरंग में निश्चय करके ( यहाँ किसी लौकिक गुरु की सम्मति आवश्यक नहीं) उस महालोक गुरु की सम्मति पाने का निश्चय करके उस इष्टलिंग को ( इष्ट का अर्थ है कि पूजा के लिए योग्य आकांक्षाओं को कराने साधक का इष्टदेव होने के कारण इष्टलिंग नाम से पुकारा) बसवेश्वर अपने साथ जो ले आये थे उसे करतलपर रख लिया था। जिस प्रकाश ने एक आकार बनाकर अपने हाथों को बसवेश्वर के ऊपर रखकर अनुग्रह किया था उसी प्रकाश की कांति इष्टलिंग में प्रवहित हुई । इस तरह वह प्रकाश इष्टलिंग को चित्कलापूर्ण करके बसवेश्वर को सद्गुरु होने का अनुग्रह देकर शून्य में विलीन हो गया। जैसे ही भगवान की करुणा उनको मिली वैसे ही वे सामर्थ्य को पाकर शोभित हुए।
[2]
इस प्रकार संगमदेव पति होकर बसवेश्वर सति होकर पंचाक्षरी की गति होकर सद्भक्ति की बुद्धि बनकर बसवेश्वर शिव की वधू हुए।
[3] और महागुरु सिद्ध हुए। ऐसे अपने हृत्कमल में उत्पन्न ( रूप प्राप्त कर) लिंग को करस्थल में (3) भक्ति से आसीन करते हैं। उनके अंतरंग में प्रज्वलित कल्पना ने न केवल रूप धारण किया बल्कि भगवान का अनुग्रह, सम्मति को प्राप्त करने से उनके आनंद की सीमा न रही। संतोष के आँसू आँखों से बहने लगे। धन्यता का भाव प्रतिबिम्बित हो उठा। मुख पर तेज झलकने लगा, उनके नेत्रों से संतोष की सलिला प्रस्रवित हो उठी।
इस प्रकार संगमेश्वर ने अनुग्रह करके उन्हें समार्थ्य शक्ति दी । लोकोद्धार के लिए अपने पुत्र को सन्नद्ध किया । इष्टलिंग की कल्पना और दैवी कारुण्य की प्राप्ति से उन्हें बहुत आनंद हुआ ।
तब वे भावोन्माद से गाते हैं और भगवान की लीला की प्रशंसा करते हैं ।
जग-सा विशाल, नभ-सा विशाल
आपका विस्तार उससे भी परे है।
पाताल से भी पार तेरे श्रीचरण,
ब्रह्मांड से बी पार तेरे श्री मुकुट,
अगम, अगोचर अप्रतिम हे! लिंग
कूडलसंगमदेव,
तुम मेरे करस्थल में समा गये।
/201
[1]
इस प्रकार बसवेश्वर जी को स्वरूपज्ञान प्राप्त हुआ। स्वयं परमात्मा ही ज्ञानगुरु होकर मार्गदर्शन बन गये । परमात्मा ही सद्गुरु होकर अनुग्रह करने पर बसवेश्वरजी भगवान की इस लीला को देखकर विस्मित हुए। वे कहते है कि “ प्रभू ! आपकी कृपा से ही मैने आपको पहचाना "ऐसा कहकर वे परमात्मा के श्रीचरणों में शरणागत होकर कहते हैं कि -
श्री गुरु की कृपा से हस्त मस्तक संयोग से
प्राणलिंग करस्थल पर विराजने लगा
भेदभाव बिना उस लिंग को अपना कर हर्षित हुआ
भावोन्माद से झूमने लगा मेरा मन
लिंग सान्निध्य में आनंदित हूँ, हे कूडलसंगमदेव ।
इस प्रकार प्रसन्न भाव से गाते हैं। यह इष्टलिंग किसी देवता, किसी भक्ति या प्राणी का चिह्न नहीं है । यह परवस्तु का चिह्न है, ऐसा स्पष्ट कहते हुए -
वेद वेदांत से परे
अनुपम लिंग सद्गुरु की कृपा सकरस्थल पर विराजने लगा
नाद बिन्दु - कलातीत
अचलित लिंग सद्गुरु की कृपा से
करस्थल पर विराजने लगा
आज मेरा यह जीवन सार्थक हुआ
मेरी आकांक्षा पूरी हुई हे कूडलसंगमदेव ॥
इस प्रकार बसवेश्वरजी का अपूर्व स्वप्न साकार हुआ।
अनमोल वस्तु हाथ लग गयी
आनंदित होकर गाऊँगा नाचूँगा
नयनों से भरपूर दर्शन करूँगा
जी भरकर आपकी भक्ति में लीन रहूँगा
- हे कूडलसंगमदेव ।
चिन्मय चित्प्रकाश परमात्मा और अपने हृदय कमल में जगमगानेवाली परंज्योती आत्मा यह दोनों साकार होकर अपने करस्थल में आया हुआ देखकर वे रोमांचित हुए ।
चिन्मय चित्प्रकाश चिदानंद लिंग हो आप
मेरे हृदय कमल में आलोकित परंज्योति है
मेरे करस्थल पर सुशोभित है
मेरे भ्रूमध्य में विराजते हैं; हे कूडलसंगमदेव ।
ऐसा कहते हुए इष्टलिंग को अपने करसथल पर प्रतिष्ठापित करके गौर से देखते हुए आनंदित होते हैं । बसवेश्वर जी की आशा आजकल की नहीं, बचपन से उगी हुई थी। पिछले बारह बरस से ही यह उदय होकर सर्वांग में व्याप्त होने से वे अब तृप्त हुए ।
पतिदेव के आगमन की प्रतीक्षा में
मैंने अंतरंग का आवास खाली कर दिया
अष्टदल प्रकोष्ट में निज निवास नामक बिस्तर बिछाया ।
ध्यान का परदा डाला, ज्ञान का दीप जलाया
निष्क्रिया रूपी उपचार आयोजित किया
पलक पावडे बिछाये, जोहने लगी बाँट
आँखों में प्राण लाकर
समय पर न पहुँचने से मेरी पीडा न बढ जाय
इस विचार से वे स्वयं आसीन हुए मेरे हृदय
सिंहासन पर पूरी हुई अभिलाषा मेरी
दूर हुई बारह वर्षों की प्रतिक्षाजन्य चिंता
आप कृपालु हैं इसलिए जीवित हूँ मैं
हे कूडलसंगमदेव ।
यह प्रसंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। बसवेश्वरजी को साक्षात्कार का अनुभव और उनके इष्टलिंग की कल्पना भी सदृढ हुई। इसके बाद बसवरस संगन बसवा अर्थात् (कूडलसंगमदेव के पुत्र) और बसवलिंग नाम से विख्यात हुए। यह तो बसवेश्वरजी केजीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है । क्योंकि इसके बाद ही वे भगवान की अपार कृपा पाकर परमात्मा का नमास्मरण करते हुए क्रांतिकारक क्षेत्र में प्रवेश करने चल पडे। यह उनकी मानसिक परिवर्तन की घटना भी है और बहुदेवोपासना से एक- देवोपासना का प्राथमिक आयाम भी
मनको भाता नहीं सो पतिदेव
मेरे मनको भारी, सुनो मेरी बहन
पन्नग भूषण पति के बिना परपुरुष का
मुँह क्या देखना बहन
कन्या की भांति बचपन का जीवन
तेरी कसम से जीऊँगी हे कूडलसंगमदेव ।
ऐसा मानकर वे शिव के बिना अन्य देवताओं का तिरस्कार करने लगे। वे एक-देवता उपासना से विशाल व्याप्ति के वैयक्तिक क्षेत्र से निर्गुणोपासना की ओर चलने लगे। उन्होंने कहा कि परमात्मा कूडलसंगम क्षेत्र के चारों दिवारों के बीच में नहीं है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है ।
अनमोल, अप्रमाण, अगोचर है लिंग
आदि मध्य अवसान से स्वतंत्र है आप
नित्य निर्मल है लिंग आयेजित है आप
हे कूडलसंगमदेव ।
इस प्रकार वे जानते हैं ।
गुरु करुणा से हस्तमस्तक संयोग से
करतलामलक भांति प्राणलिंग को
करस्थल को लाकर - दिया तो
उस लिंग के बाहर भीतर भेद बिना
मैं हुआ मस्त खुश डोल उठा अमितानंद में
हे कूडलसंगम देव ।
वह लिंग पाकर आनंद में भर जाऊँ
सद्गुरु ने दिया मेरे करस्थल में
वह अनुपम लिंग जो
अलभ्य है वेद वेदान्तियों को भी
मेरे सद्गुरु ने दिया मेरे कर स्थल में
वह अचलित लिंग जो
अभेद्य है नाद बिन्दु कलाओं को भी
मेरे सद्गुरु ने दिया मेरे करस्थल में
वह अखंड लिंग जो
अगोचर है वाक् मन को भी
अब जी उठा मैं, मेरी चाह की कामना
हाथ लग गई, हे महा कूडलसंगमदेव ॥
इस तरह बसवेश्वर स्वयं साधना से भगवान का दिव्यानुग्रह पाकर महान हुए । उनकी समस्त क्रिया के पीछे भगवान का संकल्प था । उसका हरिहर कवि वर्णन करते हैं -
मांग लाडले संग तेरे आऊँगा बसव......
कसम तेरी साथ तेरे आऊँगा बसव...
लाल मेरे मांग मांग मुझ से हे स्नेह पारावार
आऊँगा तेरे ही पीछे मेरे सुकृत के अमृत
याद करे तो रहूँगा तेरे सामने
पुकारे तो मैं कहूँगा हाजिर
तेरे तन मन कर में बसूँगा
खडा रहे तो खड़ा रहूँगा चल तो साथ चलूँगा
आने पर आऊँग कह तो मैं कहूँगा
चले लाडले चल बेटे बसव
धरती पर जियो बनकर अधिपति बसव ॥
बसवेश्वर के ऊपर संगमनाथ का संपूर्ण अनुग्रह रहा। इससे स्पष्ट होता है कि भगवान सदा उसके साथी बनकर रहे।
शरणों के नियम
हठ चाहिए शरण को पर-धन नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को पर-सती नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को अन्य देव को नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को लिंग-जंगम को एक कहने का,
हठ चाहिए शरण को प्रसाद को सत्य कहने का,
हठहीन जनों से कूडलसंगमदेव कभी प्रसन्न नहीं होंगे। / 196[1]
[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.
[2] हरिहर के बसवराज देवर रगळे ।
[3] बसवेश्वर के कोई वैयक्तिक गुरु नहीं थे। यदि रहते तो इन वचनों के संदर्भ में उल्लेख किये बिना न रहते । लोकगुरु परमात्मा ही उनके गुरु थे।
तुम्हारे तुम्हीं कर्ता हो बसव
मेरे तुम्हीं कर्ता हो बसव
मेरी भक्तिसाधना के तुम्हीं हो कर्ता बसव
करुणि कपिल मल्लिनाथय्या ॥
ऐसा सिद्धरामेश्वरने कहकर इस विचार को स्पष्ट किया है।
(3) बसवेश्वर ही इष्टलिंग के जनक हैं। उसको चामरस कहते हैं -
काया में गुरु लिंग जंगम के
आयतनबोध को जानने
सुलभोपाय प्रस्तुत कर
बाह्य स्थल के प्रतीक सा
दाँव देकर सकल भक्त समूह की
आचार्य पुरातन के संग बल से
काया को पावन किया स्वामी बसव शरणार्थी न
मैदान को एक रूप देकर
रंग में वर्णित कर
उस रंग को अंतर में बसाया
मेरे बसव प्रभुने। ...नीलांबिका
हे बसव,
तुमने निराकार को आकार मूर्ति बनाया
आकार मूर्ति को कुंज में बसाकर
तुम्हीं ने दर्शाया बसवा । ...... सिद्धरामा