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29. ज्योति को निगला कर्पूर

ज्योति को निगला कर्पूर

श्रावण शुद्ध पंचमी का दिन था । जब बसवेश्वर इष्टलिंग पूजा में तन्मय थे तब भगवान का आदेश सुनाई दिया कि " मर्त्यलोक में तुम्हारा कर्तव्य पूर्ण हो गया, तुम आकर मुझ में मिल जाओ।" इसे सुनते ही बसवेश्वर स्वयं लिंगैक्य हो जाने का निश्चय करते हैं ।

आया इस भव में बन्धु
पूर्व के विस्मरण मात्र से
आप की लीला और विनोद सूत्र से
गाकर किए गीत मैंने
लाख इक छियानबे संख्या में
दासोह नामक महागण संकुल में
रखकर मुझे अपनी ही भक्ति की घनता
सिद्ध करने आप ही
परवादी बिज्जल को विपरीत मेरे कर
उससे जूझकर
साठ तीन सौ मृतकों को जिलाकर
कर दिखाये अठासी लीला-चमत्कार
मर्त्यलोक महागणों को रख एक ओर
किया मेरा पालन
महागण आप के हो संप्रीत
दूर किया मेरे सारे सूतक
प्रभुदेव करुणा से प्राणलिंग सम्बन्ध स्वयं हो गया
आप का भेजा खोटा सिद्ध हो गया
उघे ! अब मिल जाओ लिंग देव ॥

बसवेश्वर अपने पूर्व जीवन की पृष्ठभूमि का अवलोकन करने लगे। भगवान की आज्ञा को पाकर आये थे। उसी के संकल्प के अनुसार मानवकुल के स्वातंत्र्य, वर्णभेद, वैशम्य का निर्मूलन कर एक समतावादी समाज के निर्माण हेतु भगवान ने मुझ से अलौकिक लीलाएँ संपन्न करवायीं। मेरे कर्तव्य के अब समाप्त हो जाने से भगवान से ही उसमें ऐक्य हो जाने का आदेश आया ।

बसवेश्वर का हृदय इतना विशाल था कि बिज्जल के विपरीत व्यवहार पर भी उन्न्होंने उसकी निंदा न की, उसे शाप न दिया । उसका विश्वास था कि उस के नियोजित सभी विरोध शुभ परिणाम के लिए ही है न कि हानि के लिए। उन्हें दृढ विश्वास था कि अपने जीवन में गठित सभी घटिनाएँ अच्छाई की ही हैं । बिज्जल को अपने व्यक्तित्व को प्रकाश में लानेवाली कसौटी मान कर अपने अंदर के भगवान से कहते हैं- “ तुम्हारी दी हुई भक्ति को महिमान्वित करने विरोधी को अडाकर उसके साथ लड़ने (मुझे उकसाकर) हे प्रभु, तुम्हीं ने उसे अपनी इच्छा से मेरे उद्धार के लिए भेजा।

बसवेश्वर स्वयं स्फूर्ति और अपनी तपशक्ति से शरीर त्याग करना चाहते हैं -

आत्म-बोध सूक्ष्म से फिर
काया का अवतार मिटा
अपने आप को जानो तो
है वह कूडलसंगम देव भाव ही
प्रभुदेव में ऐक्य हुआ

स्वयं प्रेरित शरीर त्याग को आत्म हत्या का कल्पितार्थ नहीं लगाना चाहिए। आत्मा हत्या में जीवन बिताने की असमर्थता की कायरता होती है । इच्छा-मरण में योग, संकल्प शक्ति से समाविष्ट होकर भगवान से ऐक्य होने का प्रयत्न रहता है । बसवेश्वर निवेदन करते हैं-

अग्नि में जलता कर्पूर क्या कोयला बनेगा?
मरीचिका जल में क्या कीचड होगा?
पवन से लिपटे परिमल को क्या अशुद्धि होगी?
मुझ पर जब आपकी कृपा है तो भव कैसा ?
हे कूडलसंगमदेव
आपके चरणकमलों में मुझे आश्रय दीजिए। / 73

इस तरह वे प्रार्थना करते हैं। उनका अहंभाव सूखकर भूम ब्रह्मांड के चैतन्य को ज्ञान की अर्चना व पूजा करके, गाकर प्रशंसा करते हैं। परंतु अवस्थाबोध और विस्मृत दोनों अस्पष्ट होकर, भाव-निर्भाव होकर, सत्य अंतर निहित होकर कूडलसंगम मे सर्व निवासित होकर, चारों ओर उस महा चैतन्य को उस चैतन्य में अपने को देखने लगे हैं। इस तरह की आकांक्षा से भरी दैवी शक्ति से समाहित होने के सुअवसर पर ही करोडो सूर्य- चन्द्रमा से भी अधिक भगवान का दिव्य प्रकाश एक दिव्य प्रभा के रूप में अवतरित होकर उन्हें आवृत कर गया। तब आनंद से गाते हैं

भक्ति रूपी पृथ्वी पर
गुरु रूपी बीज अंकुरित हुआ,
लिंगरूपी पत्ता निकल आया,
लिंगरूपी पत्ते पर, विचार रूपी सुमन खिला,
आचार रूपी कच्चा फल निकल आया,
निष्पत्ति रूपी फल पक गया,
निष्पत्ति रूपी पकाफल जब नीचे गिरने लगा
तो उसे कूडलसंगमदेव ने
अपने लिए चाहिए कहकर उठालिया। / 299 [1]

वचनतरंग ब्रह्मांड में लीन हो गया। आत्मा चैतन्य देह से मुक्त होकर शून्य में विलीन हो गया। पश्चिम चक्र का द्वार खोलकर एक महान प्रकाश निकलकर ब्रह्मांड में समाविष्ठ हो गया। आकार को निराकार में बदलकर, प्राण को निष्प्राण बनाकर शांतरूपी महादेव के हृत्कमल में प्रविष्ठ होकर ज्वाला कर्पूर को निगलने की भांति ईश्वर में व्याप्त हो गये।

गुरुकुल के सभी निवासी दौडते आकर देखते हैं। बसवेश्वर लिंगांग के सामरस्य में सहजानंद में आसनस्थ मुद्र में है । दशोवायु पश्चिम चक्र में से निकलकर, दृष्टि ब्रह्मरंद्र में स्थित हुई हैं। मंगलगीत समाप्ति के अवसर पर ही माचिदेव क्रांति का समाचार लेकर दौड आये । अनिरीक्षित रीत्या बसवेश्वर के लिंगैक्य को देखकर स्तंभीभूत हुए। फिर चेतना को पाकर भक्तिभाव से गाने लगे

पहने वस्त्र को चीरकर निकल पडे तुम हे बसवेश्वर
पहने जूते को छोडकर निकल पडे तुम हे बसवेश्वर
बन्द शिखा को खोलकर निकल पडे तुम हे बसवेश्वर
सम्बन्ध सीमा के सभी बचाकर निकल पडे तुम हे बसवेश्वर
जंगम सभी को किये अपने सब चमत्कार को कि
साथ ले गये हे बसवेश्वर
प्रकाश को धरकर व्याप्त हुए बसवेश्वर
कहूँ उस बसव की शरण के पद
दिखा दो हे कलिदेवाधि देव ।।

सत्य है बसवेश्वर लिंग समर्पित से भी अनिरीक्षित हो गये। तैयार किये गये प्रसाद को भी न स्वीकार कर पूजा के लिए उपस्थित स्थान पर ही ऐक्य हो गये। उसकी आत्मचेतना परमात्मा की चेतना में सम्मिलित होने की थोडी ही देर में हडपद अप्पण्णा के साथ कृष्णा नदी के तट के उस पार आई हुई नीलांबिका को बसवेश्वरजी से इहलोक के जीवन नाटक के मंगलश्लोक को गाने की वार्ता सुनाई पडी। उसने पानी भरी कृष्णा नदी के तट पर खडे होकर देखा। पति के दर्शन पाने की उत्कट आकांक्षा उसमें थी। मगर क्यों उसे ऐसा लगा कि वहाँ जाकर जड़ शरीर के दर्शन करने के बचाय इष्टलिंग दर्पण में चेतन-रूप में क्यों नहीं देखना चाहिए। वहाँ स्थित संगम देव यहाँ क्यों नहीं ? वहाँ यहाँ दुविध संदेह ज्ञानी महात्माओं को क्या योग्य है ? ऐसे मन में कहकर स्नान करके कृष्णा नदी के तट पर पूजा के लिए आसीन हो गयी। परमात्मा की चेतना में सम्मिलित बसवेश्वर लिंगदर्पण में प्रत्यक्ष होते ही आत्मानंद से स्वयं भी लिंगैक्य हो गयी। इस तरह बसवेश्वर ने पत्नी को माँ समझा तो नीलांबिका ने पति को पुत्र समझकर काम को ही जीता बल्कि जगत जन समूह को पक्व करनेवाले काल को भी इच्छा-मरण से जीतकर अमर हो गयी।

बसव ज्योति के लीन
बसव ज्योति के लीन होने के साथ ही कल्याण कथा का परदा गिर पड़ा। उसका तो शाश्वत अंत नहीं अगले दिन के नाटक की सूचना के लिए वह अंत्य हुआ था । कल्याण क्रांति हर एक अनुयायी के हृदय में शुरु हुई। बसवेश्वर एक तरह से हार गये, दूसरी तरह से जीत गये। महर्षी टैगूर के कहे अनुसार बुद्ध, एसु, साक्रटीस हार गये किन्तु मानव कुल को एक करने के लिए समाज विज्ञान का एक सूत्र सौंपकर विजयी हुए। बलहीनों के हाथ में चन्द्रायुध देने की तरह अस्वस्थ समाज को उन्होंने अपने तत्व शास्त्र दिये, सत्य- संप्रदाय के संग्राम में तत्कालीन हारने की तरह दिखाई पड़ने पर भी स्थिर निर्धारण, तत्व निष्ठाओं को बिम्बित किया। अंधानुकरण के ऋण प्रकाश में अंध भक्ति को स्वयं न करके, दूसरों को भी करने न देकर स्वतंत्र विचारों की आँखों की रोशनी में जीवन की सार्थकता ढूँढ लाने का उद्बोधन किया। मानवकुल के समस्त क्षेत्रों की स्वतंत्रता के लिए आत्मा का नवैद्य चढाया । सब देश, कालों को भविष्यद् मार्ग दिखाने का महत्तर संदेश देकर अमर होकर जीत गये। नदी पर्वत के गर्भ से जन्म लेकर विशाल रूप धारण करके समुद्र में मिल जाने की भाँति कन्नड़ देश-भाषाओं के गर्भ से उत्पन्न यह बसव-धारा आगे एक दिन समस्त विश्व के मानवों की हृदय भूमि को सरसयेंगी, मानवकुल कल्याण के लिए जब यह सहायक होगी तब इस विश्वज्योति का अर्थ संसार समझ सकेगा। हम आशा करें कि शीघ्र ऐसा एक वैचारिक युग संभव हो। जन पद कवि के एक लोकगीत के साथ उस कथा को पूर्ण विराम देंगे -

सकल ज्ञाता है कल्याण बसव
बिखेर दिया लाकर शिव प्रकाश को
देश देश में ऊँची आवाज में जनमन है गा उठा ।

जोतने-बोने का मंत्र बोकर उपजाने का मंत्र
सत्य शिव मंत्र है तेरा नाम है बसवेश्वर,
मर्त्य में है जीवन का मंत्र ॥

नायक है कायक सिखाने में बसवेश्वर
स्वामी है नया मत शिव भक्ति का
राज है जीवन में नई बोली का ॥

बसव है भक्ति का बीज, बसव है मुक्ति का तेज है
बसव कायक का है गुरुबीज है
शिवमत में बसव ओंकार शिवनाम है।

शरण शरण कहेंगे प्राण हरण तक
करुणाकर शरण बसवेश्वर
आशीश दे समृद्ध हम तृणमात्र को।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.

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