कम्बली नागिदेव का प्रसंग | चोरों से गायें चुराये जाने का प्रसंग |
22. कल्याण राज्य का स्वप्न साकार। |
बसवेश्वरने आदर्श समाज के संस्थापन के अपने संकल्प के अनुसार ही उनका प्रयोग धार्मिक धरातल पर अनुभव मंडप में किया। आगे उनके प्रधानी के स्थान पर आसीन होने के पश्चात् ही उन्हें व्यापक सामाजिक रूप से उसे अनुष्ठान में लाने साध्य हुआ। जन्म से ऊँच-नीच को मापने की जाति पद्धतियों, कर्म से ऊँच-नीच भेदभाव तथा संपत्ति के आधार पर श्रेष्ठ-कनिष्ठता के स्तर वैषम्य की वर्ण पद्धतियों के आचरण का निराकरण कर जो सद्गुणी, सद्भक्त हैं उन सब को भगवान के बच्चों की भाँति समझा जाने लगा। जैसे अलग-अलग नदियाँ अपने रूप, रंग, रुचि को खोकर समुद्र में ऐक्य होने पर उनमें समुद्र के गुण ही शेष रहते हैं वैसे ही भक्तत्व, शरणत्व मात्र शेष रहकर पूर्व के जाति, गोत्र, सूत्र मिट जाते हैं। वे कायक से प्राप्त के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं छूते थे । हर एक निष्ठा से कायक करके धन कमाते थे । वे अत्यंत सरल जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् बची संपत्ति को दासोह के जरिए समाज को समर्पित करते थे ।
बसवेश्वर ने जिस "जंगम पद्धति" (Missionary System) का शुभारंभ किया उससे धर्म प्रचार, विद्या प्रसार व्यापक रूप से संपन्न हुआ। बौद्धधर्म के भिक्षुक के सदृश (समता) ये जंगम होते हुए भी दोनों के विचारों में बहुत कुछ अंतर रहा। विवाहित जंगम जन सामान्यों के बीच भ्रमण करके नीति, धर्म का बोध कर सकते थे । वे प्रबोध के कायक के द्वारा धर्म प्रचार से आर्जित धन का उपयोग अपने परिवार निर्वहण के लिए कर सकते थे। वे सभी अविरत जंगम हैं। मगर अत्यंत त्यागी, अविवाहित तपोनिष्ठ जो हैं वे "विरक्त जंगम" हैं। ये बौद्ध भिक्षुओं के समान भ्रमण करते हुए धर्म जागृति का कायक करते थे । ये विरक्त कहीं भी एक जगह न ठहर कर गाँव-गाँव में भ्रमण करनेवाले चर जंगम" थे । वे अलग-अलग गाँवों में धर्मबोध करके नव परिवर्तित लोगों का अनवरत धार्मिक अनुष्ठान बनाए रखने के लिए विरक्त जंगम लोग अपने प्रतिनिधि के रूप स्थिर जंगम" को उस गाँव में बसाकर आगे बढ जाते थे। ये स्थिर जंगम धार्मिक आचरण का विधान सिखाते थे। विरक्त अपने केन्द्रों का संदर्शन करके मार्गदर्शन करते थे । गुरूपदेश मंत्र वैद्य जंगमोपदेश, शस्त्र वैद्यवाले वचन में बसवेश्वरजी के कहे अनुसार ये" चर जंगम" आज के " पर्यवेक्षक प्राध्यापक” “पर्यवेक्षक शस्त्रवैद्य" (Visiting Professor and Visiting Surgeons) की भांति थे ।
यह जगमत्व जाति पर निर्भर न होकर आत्मज्ञान पर निर्धारित होता था । साधना के द्वारा उन्नत स्थान को प्राप्त करके धर्म प्रचार कार्य में अपने आप को समर्पित करनेवालों को जंगम नाम से अभिहित किया गया। पाठशालाओं को खोलना, दासोह मठों की स्थापना करना, मठों के आँगन में गाँव के बच्चों को बुलाकर शिक्षा देना आदि प्रमुख कार्यक्रमों का निर्वहण ये स्थिर जंगम करते थे। कहीं-कहीं दासोह मठों को खोलकर घर-घर से संग्रहित भिक्षा का यात्रियों, पथिकों में दासोह के रूप में विनियोग करते थे। बडे-बडे क्षेत्रों में जाने के मार्ग में ऐसे दासोह मठों को आज भी देख सकते हैं। श्रीशैल की पगडंडी पर बहु रुद्र गंभीर और भयानक बीहड जंगलों के बीच में होकर जाना पडता है। ऐसे दुर्गम पूरे मार्ग पर दसोह मठों को देख सकते हैं। बसव संप्रदाय के स्वामी, शरण संतों से संस्थापित दासोह केन्द्रों में उनकी समर्पित असदृश सेवा को हम देख सकते हैं।
ये तो थे सेवा प्रभाग । इसके बाद बसवेश्वरजी ने समाज के शुद्धीकरण के लिए
। सत्याग्रह के प्रभागों की रचना की। इसके अंतर्गत गणाचारी समूह होते थे। यदि वैयक्तिक और सामूहिक अन्याय कहीं हुआ हो, अनैतिक कृत्य कहीं चला हो, लोग बुरे रास्ते पर चले हो तो ये गणाचारी जंगम वहाँ जाकर सत्याग्रह करते थे। अपराधियों के घर के खंभे का आलिंगन करके खडे होना, भारी पत्थर को ढोकर खडे होना नुकीले लोहे के काँटों के खडाऊ पर खडे होना, मुँह को लोहे की सुई से चुभाकर खडे होना आदि ढंगों से अपने को यातना पहुँचाकर लोगों को जागृत करके उन्हें नैतिक मार्ग पर ले जाते थ।
बसवेश्वरने मनोरंजन और मनो विकास के लिए हास- यक् त-कायक, बहुरूपीय कायक, वीरगाथा, वचन गायन कायक आदि कुछ कार्यक्रमों का आयोजन किया । हास्यकथाओं को सुनाते, हँसाते भ्रमण करना, विविध वेशभूषाओं से इतिहास, पौराणिक प्रसंगों का अभिनय करना, कथारूपक को वीरगाया नृत्यों से शरणों की कथाओं का प्रसार करना, संगीत प्रधान गायन करना आदि जंगमों के कार्य थे। इस तरह अनेक विधाओं से "जंगम” पद्धति अनुष्ठान में आकर समाज की सर्वांगीण उन्नति के लिए सहायक बनी । प्रभुदेव जैसे महामहिम भी इसे देखकर बसवेश्वर की क्रांति की ओर आकर्षित हुए। श्री सिद्धरामेश्वर को साथ लेकर कल्याण आये तो आनंद, आश्यर्च से प्रभुदेव इस तरह बोलते हैं -
कल्याण रूपि दिये में
भक्तिरस रूपि तेल भरकर
आचार रूपि बाती में
बसवण्णा रूपि ज्योति का स्पर्ष करते ही
चमक-दमक कर जगमग रहा था
शिव का प्रकाश।
उस प्रकाश में विराजे थे वे असंख्य भक्त महागण!
क्या यह बात झूट है की जहाँ हों शिवभक्त
वह अविमुक्त क्षेत्र है?
क्या यह बात झूट है की जहाँ हों शिवभक्त
वह देश पावन है?
गुहेश्वर लिंग में अपने परमाराध्य
संगमबसवण्णा को पाकर मैं धन्य हुआ, सिद्धरामय्या। / 496[1]
कल्याण नगर ही क्रांति का केन्द्र है। क्रांति का क्रोड है। विचार जागृति का दीप जलाने के लिए भूमिका है प्रणीत । बसवेश्वरने उसमें धर्म रूपी तेल छोडा; शुद्धाचरण रूपी बाती डाली, अपने सम्यक चारित्रिक रूपी ज्योति का स्पर्ष किया तो अपार, क्रांति ज्योति जगमगा उठी। यहाँ अपने जीवन को भगवन्मय करनेवाले सभी इच्छुक समाविष्ट हुए ।
बसवेश्वर से संस्यापित कल्याण राज्य अर्थगर्भित है; इस सम्बन्ध में अक्कमहादेवीजी बोलती है -
कल्याण में जा सकता है कोई
जा नहीं सकते, यह तो है असंभव,
आशा-आमिष मिटाए बीना कल्याण में
पाँव धरना नहीं चाहिए,
अंदर और बाहर से शुद्ध हुए बिना
कल्याण में नहीं जाना चाहिए,
मैं और तू का भाव मिटाए बिना
कल्याण का अंतरंग नहीं जानना चाहिए
चेन्नमल्लिकार्जुन को प्रसन्न कर
उभय लज्जा से होकर मुक्त
कल्याण को देखकर नमो नमो कर रही हूँ। / 1155[1]
कल्याण नगर प्रवेश करने के लिए ये योग्यताएँ आवश्यक थीं। कल्याण राज्य का अर्थ है "दैवी राज्य" (Kingdom of God) बसवेश्वर की दूसरी रचना है "अनुभव मंडप'" । अनुभव मंडप का सदस्यत्व प्राप्त करने के लिए इन सभी लक्षणों के होने का अर्थ स्पष्ट होता है।
कल्याण - राज्य (Welfare State) के संस्थापन के लिए कौन-कौन से गुण आवश्यक हैं ? आशा मिटी रहें, अमिष न रहें, समष्टि की उन्नति के लिए अपनी वैयक्तिक आशाओं को कम करें; स्त्री, सोना, जमीन आदि विविध अमिषों में पड़कर समष्टि के प्रति अन्याय नहीं करना चाहिए। किसी तरह के अमिष में न पड़कर आदर्शों से लिप्त रहना चाहिए। अंदर से एक तरह, बाहर में एक तरह रहकर धोखा देना वर्जित है । अंतरंग, बहिरंग दोनों में शुद्ध प्रमाणिक जीवन होना चाहिए। "कल्याण राज्य" की स्थापना जो करना चाहते हैं उन्हें अपने 'अहं' का त्याग करके गण, समाज के सामने नतमस्तक होना चाहिए। समष्टि, समुदाय को ठेस पहुँचानेवाली "अहं प्रज्ञा" से आदर्श समाज की स्थापना संभव नहीं। ये सभी लक्षण सामाजिक से संबन्धित हैं। बसवेश्वर का समतावाद आध्यात्मिक पृष्टभूमि पर निर्मित होने के कारण "अंतरंग को समझना' (Knowing one's own-self) प्रबोध भी उतना ही आवश्यक है। समाज -राष्ट्रों की संपत्ति की वृद्धि के अलावा अंतरंग की संपत्ति को भी बढाना अत्यंत आवश्यक है।
केवल इतना ही नहीं श्री मल्लिकार्जुन साक्षी देकर अपनी उभय लज्जा से विमुक्त होना है - परमात्मा के समान अंश "स्त्री पुरुष" होने के नाते भेद नहीं हैं, दोनों के विकास के लिए अवकाश रहे, बलवान दुर्बलों को शोषित करने का यहाँ अवसर न रहे। ऐसे भेद भाव के चिंतन के लिए अवसर न रहे कि पुरुष स्वतंत्र है, स्त्री परतंत्र हैं। ऐसे समान आदर्शों से समाहित समाज ही कल्याण राज्य है। बसवेश्वरजी इसके निर्माण में सफल हुए।-
सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.
[1] Number indicates at the end of each Vachana is from the book "Vachana", ISBN:978-93-81457-03-0, Edited in Kannada by Dr. M. M. Kalaburgi, Hindi translation: Dr. T.G. Prabhashankar 'Premi'. Pub: Basava Samiti Bangalore-2012.
*कम्बली नागिदेव का प्रसंग | चोरों से गायें चुराये जाने का प्रसंग |