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6. घर से निर्गमन

बसवा एक . विचार-शीलता

बसवा एक बहादुर लड़का

बसवण्णा के विचारों में तीक्ष्णता बढती ही गयी। अर्थहीन आचरण, भयंकर विभाजन, शोषणों ने उसको अतंरमुखी बनाया। धर्म क्या के वल बन्धन और अंध विश्वास है ? कभी कभी ऐसी समस्याएँ दिमाग में उत्पन्न होती थीं कि समाजिक बुराइयों के लिए कारण इस ऊँच-नीच के भेद का निर्मूलन करना क्या संभव नहीं है ?

इसी संदर्भ में उसकी आयु उपनयन संस्कार करने की हुई। (हरिहर के अनुसार उपनयन हो चुका था। फिर उन्होंने यज्ञोपवीत का तिरस्कार किया था। भीम कवि के अनुसार पहले यह नहीं हुआ था। यज्ञोपवीत उपनयन के समय में ही बसव से निराकरण और निर्गमन संभव हुआ ) यज्ञोपवीत धारण समारंभ में बहुत से रिश्तेदार आये हैं । धार्मिक विधियों को पूर्ण करने के लिए बसवरस को बुला लाते है। वे कहते हैं -

"पिताजी, बहन नागलांबिका मुझ से भी बड़ी है। बहन को फल देकर मैं खाऊँगा। उनके पहनने के बाद मैं कपड़े पहनता हूँ। पहले उसका उपनयन होने दीजिए। बाद में मेरा उपनयन हो ।” बन्धुओं के सामने क्रोध करना ठीक न समझकर मादरस ने कहा कि पुत्र, लड़कियों को धर्म संस्कार देने की पद्धति हमारे कुल के आचारों में नहीं है ; इसलिए तुम पुत्र होने के नाते तुम ही उसके लिए योग्य हो ।

जन्म देनेवाली माता एक साथ सह जीवन चलानेवाली पत्नी, पेट में से जन्म लेनेवाली बेटी, मन को आनंद देनेवाली कुल वधू इस तरह पुरुष जीवन के अभिन्न स्वरूप स्त्रियों को धर्म संस्कार से अलग रखने की पद्धति को मेरा मन स्वीकार नहीं करता। यह लिंग भेद मुझे अच्छा नहीं लगता ।। हमारे बगीचे में परिश्रम करनेवाले किसान है न, वह भी पुरुष है। उनके गले में यज्ञोपवीत क्यों नहीं है ?
वह शूद्र है, संस्कार के लिए योग्य नहीं है।'

लेकिन, यहाँ काषाय वस्त्र पहने एक गुरुजी, वे विरागी है न, वे तो स्त्री नहीं । उनके गले में यज्ञोपवीत क्यों नहीं है ?

वे जाति बन्धन, रक्तसंबन्ध, ऋणपाशों से मुक्त होकर पूज्य बने हैं। इसलिए उन्होंने जनेऊ धारण नहीं किया है।"

मेरे संदेहों के परिहार मिलने के बदले वे और भी जटिल बनते जा रहे हैं । मेरा विवेचन इसे जब तक स्वीकार नहीं करता तब तक मैं संस्कार प्राप्त नहीं कर सकता... मादरस का क्रोध सिर चढ गया। " माता-पिता जो कहते हैं उसे सुनो; मातृदेवोभव, पितृदेवोभव तथ्य को जान लो

"क्षमा कीजिए, इस शरीर का जन्म देने मात्र से आप को मैं माता-पिता कह नहीं सकता, संस्कार के सृष्टिकर्ता भगवान ही मेरे माता-पिता हैं।"

कोयल को घोंसला बनाने का सामर्थ्य नहीं है, इसलिए अपने अंडों को कौवे के घोंसले में रख छोड़ती है। कौआ अंडे को सेजकर बच्चा बनाकर चोंच से खिलाकर पालन- पोषण करता है ।। माघमास समाप्त होकर जब चैत्रमास का आगमन होते ही आम के वृक्षों में कोमल पत्तियाँ निकलती हैं तब कोयल का बच्चा “कुहूँ, कुहूँ" का राग करता है। कौआ तब उसको अपना बच्चा नहीं समझकर चोंच से मारने लगता है। कौआ चोंच से मारने पर भी कोयल "कुहूँ, कुहूँ" राग को छोडकर “का, का" नहीं बोलती ।। तब तक उसके पर मजबूत होकर स्वतंत्रता से उड़ते है ।। उसी तरह मेरे असली सृष्टिकर्ता परमात्माने आप के कौये के घोंसले रूपी घर में मुझे निमित्त मात्र रखा। आपने मेरा पालन- पोषण किया। अज्ञान का माघमास समाप्त होकर सुज्ञान का चैत्रमास आया है। मेरा असली रूप अब ज्ञात हुआ। मेरी अंतरात्मा की कोयल शिव की आकांक्षा से “कुहूँ" गीत गाती है। आप के रोके तो क्या वह रुकेगी ?

"बसवा, मेरी बात न सुनने, हमारे आचारों को न माननेवाले तुम को इस घर में स्थान नहीं है। "

"पिताजी, ऐसा ही हो इन बातों को आप के मुँह से निकलने की प्रतीक्षा में ही था। अपने लक्ष्य तक पहुँचने का ज्ञान विदित है। मुझे किसी के ऊपर क्रोध नहीं, तिरस्कार नहीं, मुझे असली ज्ञान को पाना है। उसको पाने के लिए अभी यहाँ से निकलूंगा ..."

मादलांबिका, पिता और पुत्र के वाद-विवादों से दंग रह जाती है। "वत्स, बसवरस क्रोध मत करो, अपने मन की इच्छा के अनुसार रहो, कहीं मत जाओ .... माँ ने कहा।"

"माँ..... रात में पक्षी पेडों का आश्रय लेते हैं। सुबह होते ही अपने आहार ढूँढने निकलते हैं। अज्ञान रूपी रात का परदा रहने तक हम वृक्ष पर बैठे थे। ज्ञान के सूर्योदय के बाद यह भ्रम क्यों ? हमें अपने-अपने आहार की तलाश में जाना चाहिए। माँ, आशीर्वाद दीजिए..." बसवेश्वरने अपने साधन का मार्ग ढूँढने दुंदुभि नामक संवत्सर ई. 1142 में वहाँ से निर्गमन किया।

सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.

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