मोह के बन्धन से उस पार | बलदेवरस का आगमन |
8. आराधना आनंद में बसवेश्वर |
बसवरस अपने आराध्य के मूलस्थान कूडलसंगम में निष्ठा भरे हृदय से अर्चक के कायक (काम) में लीन हो गये। अर्चकों की बुरी आदतें जैसे आलस्य, गपशप, दिखावा उनमें नहीं थीं। सबेरे सूर्योदय के पहले ही उठकर शुद्ध भक्ति से पूजा की सामग्रियों की व्यवस्था करते हैं। स्नान करते, कपड़े पहनते, फूल तोडते, जल भरते समय उनमें संगम का ध्यान ही ताना-बाना बना है। वह शुद्ध पानी, विविध फूल संग्रहित करके संगमेश्वर की अर्चना करते हैं। सरल होते हुए भी सुन्दर अलंकार करके आँखों भर देखते हैं। उसके बाद भाव विभोर होकर गाते हैं
अष्ट विधार्चन षोडशोपचार करना
संपन्न पूजा को है देखना
शिव तत्व का गीत गाना
शिव के सामने नाचना
भक्ति संभाषण करना
हमारे कूडलसंगम से है समाहित होना ।।
वे घंटों तक सामग्रियों को अधिक सावधानी से इकट्टा करके उतनी ही निष्ठा से पूजा करके, आँखों भर देखकर, नाचते-नाचते आनंद विभोर होनेवाले बसवरस को देखकर बुजुर्ग अर्चकों को जलन होने लगी। इसके साथ हंसी मजाक करते और सांत्वाना भी देते थे कि कौन सी प्राप्ति के लिए इतनी तकलीफ ? तब बसवेश्वर एक ही उत्तर देते ...
भक्तिरहित पूजा, श्रद्धारहित कार्य
वह पूजा और वह कार्य
चित्र का स्री रूप है, चित्र का गन्ना है।
गले लगाने से सुख नहीं
चखने में स्वाद नहीं,
हे! कुडलसंगमदेव ।
ऐसी है ढोंगी की भक्ति।
बसवेश्वर ने अपने से बाल्यकाल से यौवन में पदार्पण करने तक की अवधि संगम के विद्यालय में विताई। भक्तियोग का मूल शरणागति, ज्ञानयोग का शक्तिशाली अस्त्र आत्मचिंतन, कर्मयोग का सार कायक निष्ठा - ये तीनों उनमें कूटकूट कर भरे थे । निपुणता को प्राप्त किया। उन दिनों समाजिक व्यवस्था में उपस्थित अंधविश्वास, आचरण में शुष्कता, पूजा में यांत्रिकता, धर्म के नाम पर लगातार होनेवाले शोषण आदि से अतीव जुगुप्सा उत्पन्न होने के अतिरिक्त मन में आंदोलन भी होने लगे। उपनिषद सार के इन सब के संगम को परिवर्द्धित रूप देने की आकांक्षा में उपस्थित थी ।
क़रीब इक्कीस वर्ष की आयु में लौकिक शिक्षण समाप्त करने के पहले ही बसवेश्वर के बुद्धि और पांडित्य में प्रौढिता आ गयी। ऐसे ही संदर्भ में एक विलक्षण घटना घटी। [1]
कूडलसंगम में कपिल - षष्ठि मुहूर्त के अवसर पर बडे वैभव से अर्चक पूजादियों -का आयोजन कर रहे हैं। इस क्षेत्र में पधारे जन समूह पानी में डुबकी लगाना, पेडों का चक्कर लगाना, चांदी के सींगों से अलंकृत गायों को दान देना, सहस्र कमलों की पूजा करना - आदि में तल्लीन था। उस समय बसवेश्वर अंतर्मुखी होकर चिन्ता कर रहे हैं। ये सब क्या भागवान को चाहिए ? भगवान ऐसे वैभव से प्रसन्न हो जाये तो गरीब भक्तों का क्या हाल हो ? क्या ये सब भगवान की कृपा से वंचित हैं ?
ऐसी परिस्थिति में कुछ गरीब भक्त आकर उलाहना देते हैं कि उनसे वैभव की पूजा करना संभव नहीं है। इसको देखकर बसवेश्वर दुखित होकर तुरंत भक्तिभाव से चुने फूलों को लाकर गरीब भक्तों को अंदर ले जाकर, संगमेश्वर की पूजा करने लगे। इससे पूजारियों का क्रोध आकाश तक चढ गया। " पकडो, मारो, हत्या करो कहते हुए अर्चक भक्ति में परवश होकर पूजा करनेवाले बसवेश्वश्वर की खींचातानी करने लगे। अपने जीविकोपार्जन के लिए बसवेश्वर खतरा लाने के अलावा वेदागम्य शास्त्रों के विपरीत पूजा करने लगा है, आदि कहते हुए झगडते, चिल्लाते उस पर टूट पडे। इतने में संगमेश्वर लिंग से ब्रह्मनाद निकलकर आकाशवाणी सुनाई पडी कि अरे, तुम से की गयी पूजा झूठी है, बसवेश्वर की पूजा मेरे लिए रम्य है।" उस समय खडे ब्राह्मण समूह, भक्त समूह आश्चर्य से चकित होकर भय -भक्ति से बसवेश्वर को नमस्कार करते हैं । उनमें विश्वास जम जाता है कि " संगमनाथ ही बसवेश्रवर है, बसवेश्वर ही संगमनाथ है।
यह घटना बहुत ही महत्व रखती है क्योंकि इससे बसवेश्वर के आचार-विचार, बोलचाल भगवान को प्रिय होने का प्रचार ही नहीं हुआ, बल्कि जन समूह के ध्यान को भी आकर्षित करने का कारण बना। इससे यह प्रकट हुआ कि ओहो, यहाँ पर एक महान विचारवादी चिन्तक है जो भगवान का तिनिधि होकर संसार का मार्गदर्शन करने आया है। इतना ही नहीं यह समाचार मंगलवेढे के राजा बिज्जल तक पहुँच गया। जो लोग मेले में आये थे उन से अतिरंजित घटना को सुनकर राजा बिज्जल ने दांतोतले उंगली दबाई । दंडनायक बलदेवने वहाँ से बसवेश्वर को भक्तिभाव से नमस्कार किया। बसवरस कौन है ? ऐसे विवरणों से पूछते-पूछते उनको इस तरह ज्ञात हुआ
बागेवाडी के मंडगे का मादिराजा, उसकी पत्नी अपनी बहन मादलांबिका का पुत्र ही बसवरस है । अब तक उसने समझा था कि " उपनयन को स्वीकार न करके माता- पिता की बातों को धिक्कारते हुए घर से निकला हुआ बसवरस उद्दंड बालक है "बलदेवरस को मालूम हो गया कि " वह उद्दंड नहीं, समर्थ विचारवादी, विवेकी, भक्त, सात्विक, संगमनाथ का कृपापात्र और पुण्यवान है।” मन में तुरंत एक विचार आया। बलदेवरस की नीलगंगा नामक एक मात्र पुत्री थी। उसको अपने भतीजा बसवरस के साथ विवाह करके अपने साथ ही रख लेने की बात सोचने लगे। इसी बीच एक सदवकाश भी उन्हें प्राप्त हुआ।
सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.
[1] सिं . ब. च. छठवी संधि, पद्य 11 से 21 तक घटना घटी होगी। वर्ष, श्रीमुख संवत्सर इसवीं 1153 मकर संक्रमण काल में।
*मोह के बन्धन से उस पार | बलदेवरस का आगमन |