पूर्ण नाम: |
अल्लमप्रभु |
वचनांकित : |
गुहेश्वर |
कायक (व्यवसाय): |
अनुभव मंडप के अध्यक्ष |
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जब हो अमृत सागर में
तो गाय की चिंता क्यों?
जब हो मेरु मध्य में
तो स्वर्ण मिश्रित धूल छानने की चिंता क्यों?
जब हो श्रीगुरु सानिध्य में
तो तत्व विधा की चिंता क्यों?
मुक्ति की चिंता क्यों? जब हो प्रसादि
जब हो करस्थल में लिंग
गुहेश्वर, और किसकी चिंता? /४५१ (451)[1]
अज्ञान रूपी झूले में
ज्ञान रूपी शिशु सुलाकर
सकल वेद शास्त्र रूपी रस्सी से बाँधकर झूला,
झूलाती हूई झूला,
लोरी गा रही है, भ्रांति रूपी माई!
जबतक झूला न टूटे, रस्सी न कटे
लोरी बंद न हो
तबतक गुहेश्वर लिंग के दर्शन नहीं होंगे। /४४७ (447)[1]
अल्लमप्रभु (११६०) शरणांदोलन के नेताओं में अल्लमप्रभु का नाम प्रमुख है। अध्यात्म, अनुभाव के क्षेत्र में शिखरप्राय व्यक्ति अल्लम के जीवन और साधना पर कई काव्य कृतियां सृजित हैं और उनमें हरिहर और चामरस संप्रदाय नाम से दो शाकाएं हैं।
उभयदृष्टि एक दृष्टि में जैसे दीखेगी
वैसे ही दंपति एक भाव के होने पर
गुहेश्वर लिंग को हो गये आर्पित, संगनबसवण्णा। /४७२ (472)[1]
अल्लम का जन्मस्थान शिमोग्गा जिला, शिकारिपुर तालुक बळ्ळिगावि है। पिता का नाम निरंहकार और मां का नाम सुज्ञानि है। इनका कायक था देवालय में ’मद्धळे’ (मृदंग) बजाना। इस काल में इनकी प्रविणता से प्रसन्न होकर कामलता उनसे शादी कर लेती है। कवि हरिहर के अनुसार सती की अकालिक मृत्यु से आगे वे लिंगायत धारणकर जीवन आरंभ करते हैं। चामरस के अनुसार अल्लम कला प्रवीणता से प्रभावित होकर मोह में पडकर आयी मायादेवी का निराकरण कर वे मायाकोलाहल कहलाते हैं।
कल्याण रूपी दीय में
भक्तिरस रूपी तेल भरकर
अचार रूपी बाती में
बसवण्णा रूपी ज्योति का स्पर्श करते ही
चमक-दमक कर जगमगा रहा था
शिव का प्रकाश।
उस प्रकाश में विराज थे वे असंख्य महागण!
क्या यह बात झूठ है कि जहाँ हो शिवभक्त
वह अविमुक्त क्षेत्र है?
क्या यह बात झूठ है कि जहाँ हों शिवभक्त
वह देश पावन है?
गुहेश्वर लिंग में अपने परमराध्य
संगनबसवण्णा को पाकर मैं धन्य हुआ, सिद्धरामय्या। /४९६ (496)[1]
अनिमिषदेव अल्लम के दीक्षा गुरु हैं। गुरु के दर्शन से अल्लम अनुभावि होते हैं। आगे चरजंगम होकर लोकसंचार करते हैं। गोग्गय्या, मुक्तायक्क, सिद्धराम, गोरक्ष आदि साधकों के मन का कालिख मिटाकर, सही मार्ग पर आगे चलने के लिए प्रेरित करते हैं। बसवण्णा के शरणांदोलन को देखते सिद्धराम को भी लेकर कल्याण आते हैं। वहां अनुभव मंडप के अध्यक्ष बनकर, अध्यात्म चिंतन में मार्गदर्शन देते हैं। कल्याण क्रांति के पहले ही श्रीशैल की और जाकर वही ऐक्य हो जाते हैं।
’कुंडलिंग’ नामक कीट के जैसे
बदन को मिट्टी से अनछुवा रखा तुमने
बसवण्णा।
जल में कमल के जैसे
जल मे रहकर भी जल से अनछुआ
रहा न तुम बसवण्णा
जल से बने मोती जैसे
जल स्वयं न बनकर
तुम अलग ही रहे न बसवण्णा।
गुहेश्वर लिंग का आदेश लेकर
तनगुण से उन्मत्त
ऐश्वर्य से अंधे के धर्म को
क्या करने आये हो
हे संगन बसवण्णा? /५०९ (509) [1]
’गुहेश्वर’ वचनांकित से वचन, स्वर वचन, सृष्टि वचन और मंत्र गोप्य रचे हैं। अब उनके १६४५ वचन उपलब्ध हुए हैं। उन वचनों का कॆंद्र विषय अध्यात्म और अनुभाव हैं। वे अधिकरत ’बेडगिन’ (उलठबासियों में) (निगूढ, cryptic,mysterious) वचन शैली में अभिव्यक्त हैं।
तन नंगा रहने से क्या हुआ
जबकि मन ही शुद्ध न हो?
सिर मूँड़ाने से क्या हुआ
जबकि भाव ही लय न हो?
भस्म लगाने से क्या हुआ
जबकि इंद्रिय गुणों को जलाएँगे नहीं?
इस प्रकार आशा व वेष के ढोंग पर
गुहेश्वर तेरी कसम, दुत्कारुँगा। /५३० (530)[1]
हे माता-पिता विहीन बेटे
तुम स्वयं जन्म लेकर हुए स्वयं बड़े।
तेरा परिणाम ही तुम्हें प्राणतृप्ति है न
भेद करनेवालों के लिए अभेध्ध होकर
तुम स्वयं प्रकाशमान हो।
तुम्हारा चरित्र, तुम्हारे लिए सहत है गुहेश्वर। /५३६ (536) [1]
देह में जब देव मंदिर हो
तो दुसरा देव मंदिर काहे को?
इस प्रकार इन दोनों के लिए नहिं कहना चाहिए
गुहेश्वर, तुम पत्थर हो तो मै क्या होऊँ? /५४१
पेड़ के अंदर के पत्र फल
ऋतु के आधीन होकर होंगे प्रकट।
वैसे ही हर के अंदर के प्रकृति- स्वभाव
हर भाव की इच्छा के अनुरूप होंगे प्रकट,
लीला होने पर उमापति
लीला चूकने पर स्वयंभु, गुहेश्वर। /587[1]
मत्र्यलोक के मानवों को
देवालय में एक मूर्ति बनाते देखकर मैं चौंक गया
प्रतिनित्य अर्चना-पूजा कराके
भोग चढ़नेवालों को देखकर मैं चौंक गया
तुम्हारे शरण ऐसी मूर्ति को पीछे रखकर चले गये गुहेश्वर। /588 [1]
वाक् ज्योतिर्लिंग है, स्वर है परतत्व!
ताल-ओष्ट्य् का संपुट ही नाद बिंदु कलातीत!
गुहेश्वर के शरण कोई दोष नहिं, सुन री पगली। /592 [1]
नहाकर की पूजा ईश्वर की
कहनेवाले संदेही मानव, सुनो तो,
क्या नहाएगी नहीं मछली?
क्या नहाएगा नहीं मगरमच्छ?
स्वयं नहाकर, जब तक नहाओगे नहीं अपने मन को तो
इस चमत्कार की बात को मानेगा क्या
हमारा गुहेश्वर? /593 [1]
मेघों की ओट की बिजली जैसे
निर्वात की ओट की मरीचिका जैसे
शब्द की ओट के नि:शब्द जैसे
आँखों की ओट की रोशनी जैसे
गुहेश्वर, है आपका स्वरूप। /596 [1]
वेद जो है ब्रह्मा के ढोंग हैं
शास्त्र जो है सरस्वति के व्यर्थ का खेल हैं
आगम जो है ऋषि के मुग्धखेल हैं
पुराण जो है पुर्वजों के व्यर्थखेल हैं
यों इन्हें समझानेवलों का निराकरण कर
अपने सत्य में जो होगा स्थापित
वह गुहेश्वर लिंग में होगा शुद्ध लिंगैक्य है। /607 [1]
वेद प्रमाण नहीं, शास्त्र प्रमाण नहिं,
शब्द प्रमाण नहीं, भाई लिंग के लिए
अंग संग के मध्य में छिपकर
जीवन बिताया गुहेश्वर, आपके शरण ने। /608[1]
वेद पठन का विषय है
शास्त्र हाट-बाज़ार की खबर है
पुराण गुंडों कि गोष्ठि है
तर्क मेषों का द्वंद्व है
भक्ति, दिखाकर भोगने का लाभ है।
गुहेश्वर इन सबसे परे घन है। /609[1]
वेद समझा न सकने से उजड़ गए,
शास्त्र साधना न कर सकने से उजड़ गए,
पुराण पूर्ण न हो सकने से उजड़ गए
पूर्वज अपने आपको समझे बिना उजड़ गए,
उनकी बुद्धि उन्हे को खा गई,
ऐसे में, भला आपको कैसे समझ सकते है गुहेश्वर? /610[1]
सती सहित व्रती बना बसवण्णा
व्रती होकर ब्रह्मचारी बना बसवण्णा
ब्रह्मचारि होकर भवरहित हूवा बसवण्णा
गुहेश्वर, आपमें बाल ब्रह्मचारि हुवा केवल बसवण्णा ही। / 618[1]
भटक-भटक कर आने से क्या हुआ?
लाख गंगा में नहाने से क्या हुआ?
मेरु गिरि की चोटी पर होकर खड़े पुकारने से क्या हुआ?
व्रत-नियमों से नित तन को दंडित करने से क्या हुआ?
जो मन करता नित सुमिरन, ध्यान
छलांग इत उत लगाते मन को
चित्त में केंद्रित कर सके तो
गुहेश्वर लिंग केवल शून्य का प्रकाश है। /625[1]
दूध का नेम रखनेवाला बिल्लि बनकर जन्म लेगा,
चने का नेम रखनेवाला घोडा बनकर जन्म लेगा,
पूजाजल का नेम रखनेवाला मेंढ़क बनकर जन्म लेगा,
पुष्प का नेम रखनेवाला भ्रमर बनकर जन्म लेगा,
ये षटस्थल के बाहर हैं
सच्ची भक्ति जिनकी नहीं, उनसे गुहेश्वर
प्रसन्न नहिं होंगे। /635[1]
References
[1] Vachana number in the book "VACHANA" (Edited in Kannada Dr. M. M. Kalaburgi), Hindi Version Translation by: Dr. T. G. Prabhashankar 'Premi' ISBN: 978-93-81457-03-0, 2012, Pub: Basava Samithi, Basava Bhavana Benguluru 560001.
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