पूर्ण नाम: |
जक्कणय्या (1800 ई.)
|
वचनांकित : |
झेंकार निजलिंग प्रभु
|
*
आकाश के रात-दिन होते हैं क्या?
सूर्य के अंग में कालिक है क्या?
विष कहाँ क्षीरसागर में ?
ज्ञानी के अंतरंग में अज्ञान कैसे?
हे झंकार निजलिंग प्रभु। / 2279 [1]
जक्कणय्या ने अधिक संख्या में वचन-रचना की है। परंतु इनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं। 'झेंकार निजलिंग प्रभु' वचनांकित से इनके 778 वचन मिले हैं। इनका अठारह स्थलों में संकलन हुआ है और इस कृति को 'निराळ मंत्रगोप्य' नाम दिया गया है। इन वचनों का उद्देश्य योग रहस्य को उलटबासियाँ में प्रस्तुत करना रहा है।
अंधेरे घर में उजाला कहाँ ?
उस अंधेरे घर में ज्योति उजागर करने पर
अंधकार दूर हुआ देखो भाई
इस रीति से मन रूपी अंधकार में
ज्ञानरूपी ज्योति से उजाला करने से ।
अंतरंग और बहिरंग प्रकाशित हुआ देखो,
हे झंकार निजलिंग प्रभु।। | / 2284 [1]
विश्वास न करो कि यह देह अपनी है।
विश्वास न करो कि यह जीव अपना है।
काया जीव रूपी प्रकृति मिटाकर
शिवयोग में स्थिर हुए ।
निश्चित शांत पूर्ण था देखो
हे झंकार निजलिंग प्रभु।। / 2285 [1]
अंधे को आईना दिखाने से
उस अंधे को मुख नहीं दिखता देखो भाई,
चोर को ज्ञान समझाने से
वह चोर समाज को उजाला कर सकेगा क्या?
महीतल का स्वामी ईश्वर
अपने पथ पर चलने वालों के
संग रहेगा, देखो।
हे झंकार निजलिंग प्रभु । / 2286 [1]
गुरुकृपा से काया का कर्म मैं ने मिटा लिया
लिंगानुसंधान से जीव का मैंने कर्म मिटा लिया,
जंगम अनुसंधान से प्राणों का कर्म मैंने मिटा लिया,
प्रसाद के अनुसंधान से सर्वकर्मों को मैंने मिटा लिया,
हे झंकार निजलिंग प्रभु। / 2287 [1]
References
[1] Vachana number in the book "VACHANA" (Edited in Kannada Dr. M. M. Kalaburgi), Hindi Version Translation by: Dr. T. G. Prabhashankar 'Premi' ISBN: 978-93-81457-03-0, 2012, Pub: Basava Samithi, Basava Bhavana Benguluru 560001.
*