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(जेडर) जुलाहा दासिमय्या (1100)

पूर्ण नाम: जुलाहा दासिमय्या
वचनांकित : रामनाथ
कायक (काम): कपड़े बुनने का कायक (Spinning, clothes knitting)

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सच्चे शिवैक्य को सुप्रभात अमवस्या है।
कड़ी दुपहर ही संक्रांति है।
फिर अस्तमान होती है पूनम
भक्त के घर का आँगन ही है वाराणसी, रामनाथ। / 1714 [1]

जेडर (जुलाहा) दासिमय्या आद्य वचनकार कहलाते हैं। इनका जन्म मुदनूर में हुआ । कामय्या पिता थे, शंकरी माँ थी और दुग्गळे इनकी पत्नी थीं। कपड़े बुनने का कायक करते थे। यह बात प्रसिद्ध है कि इनमें जो अहंकार था कि शिव को वस्तु समर्पितकर तवनिधि पाया, उस अहंकार को शंकर दासिमय्या ने चूर चूर कर दिया। 'रामनाथ' वचनांकित से 176 वचन प्राप्त हुए हैं। वचन साहित्य का स्वरूप, लक्षण और आशय से युक्त ये वचन शरण धर्म की परिभाषाओं को रूपित करते हैं।

कुल मद को छोड़कर
आपको संतुष्ट करनेवाले शरणों को
सिर नवाऊँगा उन्हें कुलज मानकर।
आपसे प्रेम करनेवाले शरणों
के आगे जो सिर न नवाता, ऐसे अहंकारी का सिर
शूल के ऊपर का सिर है रामनाथ। / 1739 [1]

दासिमय्या के वचनों में संक्षिप्तता, सरलता और अर्थवत्ता को मुख्य लक्षण के रूप में रखकर, शरण बानी के महत्व, दांपत्य धर्म, स्त्री-पुरुष समानता, गुरु की श्रेष्ठता, भूखे पेट की तीव्रता, देव का दानगुण, मानव की स्वार्थ और समाज की विषमता पर विडंबना और सर्व समानता की चाह का अत्यंत आत्मीयता से प्रतिपादन हुआ है।

पत्नी के प्राणों के लिए थे क्या कुच और कच?
ब्राह्मण पति के प्राणों के लिए था क्या यज्ञोपवीत?
बाहर जो अंत्यज था उसके प्राण के हाथ में लाठी था क्या?
तुम्हारे इस रहस्य को इस लोक के
जड़ मतवाले कैसे जान पाएँगे, रामनाथ। / 1760 [1]

कर्नाटक के धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्र में जेड़र दासिमय्या का अत्यंत सम्माननीय स्थान है, जो एक नये धर्म, एक नये साहित्य रूप और एक नये जीवन के सपनों को लेकर आये।

कुच कच बढ़े तो स्त्री कहते हैं।
दाढ़ी-मूंछ बढ़े तो पुरुष कहते हैं।
इसके बीच जो आत्मा है।
वह न स्त्री, न पुरुष ही देखो, रामनाथ। / 1764 [1]

सती-पति मिलकर करनेवाली भक्ति
शिवजी पसंद करेंगे।
पति-पत्नी सम्मत न हो ऐसी भक्ति
अमृत में विष घोलने के समान है रामनाथ। / 1771 [1]

सती का संग और अतिशय भोजन
पृथ्वी के ईश्वर की पूजा
इन्हें समझदार हो तो दूसरों के हाथों से
कराते हैं क्या? रामनाथ। / 1772 [1]

सूकर को चंदन का लेप करने से भी क्या
वह गंधगज बन सकता है क्या?
मोर का नाच देखकर
जंगली मुर्गी अपने पँख फड़फड़ाने के समान
कर्मियों की भक्ति भी!
बाह्य वेष से विभूति, रुद्राक्ष धारण करने से क्या ?
भक्ति की रीति समझकर अज्ञान से दूर होकर ।
वचनानुसार नीति रखते हो तो ।
उन लोगों को अजात कहता हूँ मैं रामनाथ । / 1773 [1]

References

[1] Vachana number in the book "VACHANA" (Edited in Kannada Dr. M. M. Kalaburgi), Hindi Version Translation by: Dr. T. G. Prabhashankar 'Premi' ISBN: 978-93-81457-03-0, 2012, Pub: Basava Samithi, Basava Bhavana Benguluru 560001.

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