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मनसंद मारितंदे (1160)

पूर्ण नाम: मनसंद मारितंदे
वचनांकित : मन संदित्तु मारेश्वर

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इष्टलिंग और प्राण लिंग को
अलग-अलग रूप में देख सकते क्या ?
वृक्ष बीज में छिपकर
बीज वृक्ष को निगलने के जैसे
इष्ट प्राण को जुड़ा रहना चाहिए।
पानी के मोती होने के जैसे, दोनों का स्वरूप है।
मन लीन हुआ मारेश्वरा।। / 1907 [1]

इनके जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं । इनका वचनांकित है ‘मन संदित्तु मारेश्वर' 101 वचन मिले हैं, इनमें गुरु लिंग जंगम विचार, लिंगांग सामरस्य की रीति, व्रतनियम विवरण, धर्मभ्रष्टों की आलोचना आदि प्रतिवादित हैं।

पत्थर कांति से रत्न होने जैसे
पानी का सार सूखकर नमक होने जैसे
पानी वायु के संग से प्रबल होने जैसे
पूर्वाश्रम को मिटाकर पुनः जनम लेने के बाद
अपने बंधु भाव में मिले तो
वह गुण आचार से बाहर है।
माता, पिता भाई, बंधु कहकर
मन का लगाव होने से
आचार दृष्टि से भ्रष्ट, विचार के लिये दूर और
परमार्थ के लिए अयोग्य है।
इन सबको मिटाकर स्वयं में स्थित होने से
मन लीन हुआ मारेश्वरा। / 1908[1]

कायारूप में रहने तक शिवभक्त को कायक ही कैलास है।
जिसका कायक नहीं उसका ज्ञान व्यर्थ है।
रसोइया के घर के घड़े की माँड मत चाहो।
कोई दानी है तो उसके यहाँ बार-बार मत जाओ।
ऐसे लोगों के चरण देखने से पहले ही आप ऐक्य हुए न!
मन लीन हुआ मारेश्वरा। / 1909[1]

ख्याति लाभ की पूजा, धन को नष्ट करने के लिए कारण बनी।
वैराग्य से विरक्ति पैदा होने से
स्त्री, धन, भूमि के मोह के लिए कारण बना।
वाद-प्रतिवाद मात्सर्य हार-जीत का कारण बना।
इन सारी बातों को जानकर है'' और 'नहीं''।
की जिंज्ञासा में मन लीन हुआ मारेश्वरा। / 1910 [1]

References

[1] Vachana number in the book "VACHANA" (Edited in Kannada Dr. M. M. Kalaburgi), Hindi Version Translation by: Dr. T. G. Prabhashankar 'Premi' ISBN: 978-93-81457-03-0, 2012, Pub: Basava Samithi, Basava Bhavana Benguluru 560001.

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