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परंज्योति (17वीं शती)

पूर्ण नाम: परंज्योति
वचनांकित : परंज्योति

काया में स्थित माया को त्यागना सोचनेवाले मुर्ख को
माया को छेड़ें कैसे?
देह भाव में रहकर अनुभव करते
उस अमृत का स्वाद लेने की बात करते हैं।
उस अमृत सेवन के बाद भूख है क्य? बताओ
मृत्यु, वात-पित्त, श्लेष्में को पीकर
उस अमृत सेवन करने की बात करनेवालों को
कभी नहीं अमृत मिलेगा, देखो।
ऐसे भ्रांत भ्रमीतों के दूषित पाप कर्मों का
न आदि है न अंत।
स्वयं चित्त बने महात्मा को
न लय है, न भय है, न कातरता है।
देह में होनेवाली कपिचेष्टाएँ कभी नहिं होती,
महतोत्तम वरनाग के गुरुवीर ही परंज्योति महा विरक्ति हैं। /२४३६ [1]

परंज्योति (17वीं शती) इनके बारे में कोई जानकारी नहीं। परंज्योति के वचन' शीर्षक से वचन प्राप्त हुए हैं इसलिए इस वचनकार का नाम परंज्योति रहा होगा। इनका वचनांकित है "वरनागन गुरु वीरने परंज्योति महाविरक्ति' (वरनागके गुरुवीरही परंज्योति महाविरक्ति)। इनके सोलह वचन मिले हैं। इन वचनों का उद्देश्य है जो अपने आपको नहीं जानता और अपने अंदर के परमात्मा को नहीं पहचानता,ऐसे दूसरों को भटकानेवाले वेषधारी डांभिकों की विडंबना करना।

References

[1] Vachana number in the book "VACHANA" (Edited in Kannada Dr. M. M. Kalaburgi), Hindi Version Translation by: Dr. T. G. Prabhashankar 'Premi' ISBN: 978-93-81457-03-0, 2012, Pub: Basava Samithi, Basava Bhavana Benguluru 560001.

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